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द्वितीय खंड।
[५७ अथवा जिस समय व्यय होता उस समय उत्पाद और ध्रौव्य नहीं होते अथवा जब ध्रौव्य होता तव उत्पाद व्यय नहीं होते । किन्तु वस्तुका स्वभाव यह है कि ये तीनों द्रव्यमें एक ही समयमे होते है । द्रव्य अपने सामान्य द्रवण या परिणमन खभावसे सदाकाल परिणमन करता रहता है चाहे उसमें स्वाभाविक सदृश परिणमन हो, चाहे वैभाविक विसदृश परिणमन हो। हरएक समयमें द्रव्य जब जिस अवस्थाविशेषको झलकाता है तब ही पूर्व अवस्थाविशेषका नाश होता है और वह द्रव्य स्थिर रहता है । द्रव्यका ध्रौव्य रहते हुए किसी पर्यायका नाश सो ही किसी अन्य पर्यायका उत्पाद है अथवा किसी पर्यायका उत्पाद सो ही किसी पर्यायका नाश है । सूर्योदयका होना सो ही रात्रिका नाश है, अथवा रात्रिका नाश सो ही सूर्योदय होना है । दिशाओका ध्रौव्य है ही। चनेके दानेका नाश सो ही वेसनका उत्पाद है अथवा वेसनका उत्पाद सो ही चनेके दानेका नाश है तथा चनेके परमाणुओंका ध्रौव्य है ही। इसी तरह आत्मामें क्रोधका नाश सोही उत्तम क्षमाका उत्पाद है, मानका नाश सो ही उत्तम मार्दवका उत्पाद है, मायाका नाश सो ही उत्तम आर्जवका उत्पाद है, उत्तम शौचका उत्पाद सो ही लोभका नाश है, सम्यग्दर्शनका उत्पाद सो ही मिथ्यात्त्वका नाश है, पंचमगुणस्थानका नाश सो ही सप्तम गुणस्थानका उत्पाद है। अव्रतका नाश सो ही व्रतभावका उत्पाद है। इन उत्पाद व नाशोंके एक समयमें होते हुए आत्मा प्रौव्य रूप है ही, इस तरह आत्मा व अनात्मारूप सम्पूर्ण द्रव्य हरएक समयमें उत्पादं व्यय ध्रौव्य स्वरूप हैं । इसी तीनरूप स्वभावके होते हुए ही द्रव्य जगतमें कार्यको प्रगट