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श्रीप्रवचनलारटोका। आगे उन्नीस गाथा पर्यंत 'जीवका पुद्गलके साथ बंध है। इस मुख्यतासे व्याख्यान करते हैं। इसमें छः स्थल हैं। इनमेंसे आदिके स्थलमें " अरममरूवं " इत्यादि शुद्ध जीवके व्याख्यानकी गाथा एक है, " मुत्तो रूवादि " इत्यादि पूर्वपक्ष व उसके परिहारकी मुख्यतासे दो गाथाएं हैं, ऐसे पहले स्थलमें नीन गाथाएं हैं। फिर भाव बंधकी मुख्यतासे “ उचओगमओ" इत्यादि दो गाथाएं हैं। आगे परस्पर दोनो पुद्गलोंका बन्ध होता है, जीवका रागादि परिणामके साथ वन्ध है और जीव पुद्गलोका वन्ध है ऐसे तीन प्रकार बन्धकी मुख्यतासे "मासेहि पुग्गलाणं" इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर निश्चयसे द्रव्य बन्धका कारण होनेसे रागादि परिणाम ही चन्ध है। ऐसा कहते हुए "रत्तो बन्धदि" इत्यादि तीन गाथाएं हैं। आगे भेदभावनाकी मुख्यतासे " भणिदा पुढवी" इत्यादि दो सूत्र हैं। फिर यह जीव रागादि भावोका ही कर्ता है, द्रव्य काँका कर्ता नहीं है ऐसा कहते हुए " कुन्वं सहावमादा " ऐमे छठे स्थलमें गाथाए सात हैं। जहां मुख्यपना शब्द कहा है वहां यथासंभव
और भी अर्थ मिलता है ऐसा भाव सर्व ठिकाने जानना योग्य है। इस तरह उन्नीस गाथाओसे तीसरे विशेष अंतर अधिकार में समुदाय पातनिका है ॥
उत्थानिका-ऐमा प्रश्न होनेपर कि इस जीवका शरीरादि परद्रव्योसे मिल अन्य द्रव्योसे असाधारण अपना खरूप क्या है? आचार्य उत्तर देते हैं
अरसमसमाधं अव्वत्त चेदणाराणमसदं । । जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिसंशणं ॥ ८३ ॥