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द्वितोय खंड।
अरसमरूपमगन्धमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दम् । जानीह्यलिंगग्रहण जीवमनिर्दिष्टसस्थान ॥ ८३ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ:-(जीवम्) इस जीवको (अरसं) पांच रससे रहित (अरूवम्) पाच वर्णसे रहित (अगंध) दो गंधसे रहित तथा इन्होके साथ आठ प्रकार स्पर्शसे रहित, ( अव्वतं) अप्रगट (असई) शब्द रहित, ( अलिंगग्गणं ) किसी चिह्नसे न पकड़ने योग्य (अणिदिवसंठाणं ) नियमित आकार रहि (चेदणागुणं) सर्व पुद्गलादि अचेतन द्रव्योंसे भिन्न और समस्त अन्य द्रव्योसे विशेष तथा अपने ही अनन्त जीव जातिमें साधारण ऐसे चैतन्य गुणको रखनेवाला (जाण) जानो।
विशेषार्थः-अलिग ग्रहण जो विशेषण दिया है उसके बहुतसे अर्थ होते है वे यहा समझाए जाते है । लिग इद्रियोको कहते हैं । उनके द्वारा यह आत्मा पदार्थोंको निश्चयसे नहीं जानता है क्योकि आत्मा खभावसे अपने अतीन्द्रिय अखंडज्ञान सहित है इसलिये अलिंग ग्रहण है अथवा लिंग शब्दसे चक्षु,आदि इन्द्रियें लेना, इन चक्षु आदिसे अन्य जीव भी इस आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्ते क्योकि यह आत्मा विकार रहित अतींद्रिय खसवेदन प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा ही अनुभवमे आता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । अथवा धूम आदिको चिह्न कहते हैं जैसे धुएंके चिह्नरूप अनुमानसे अग्निका ज्ञान करते हैं ऐसे यह आत्मा जानने योग्य पर पदार्थोको नहीं जानता क्योकि स्वय ही चिह्न या अनुमान रहितं प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञानको रखनेवाला है उसे ही जानता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है अथवा कोई भी अन्य पुरुष जैसे