SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ३०४] श्रीप्रवचनसारटोका। , घूमके चिह्नसे अग्निका ग्रहण कर लेते हैं वेसे अनुमानरूप चिह्नसे आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्के क्योंकि वह चिह्न रहित अतीन्द्रिय ज्ञानके द्वारा जानने योग्य है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । अथवा लिग नाम शिखा, जटा धारण आदि भेषका है इससे भी आत्मा पदार्थीका ग्रहण नहीं कर सक्ता क्योंकि स्वाभाविक, विना किसी चिके उत्पन्न अतीद्रिय ज्ञानको यह आत्मा रखनेवाला है इसलिये भी अलिंग ग्रहण है । अथवा किसी भी भेषके ज्ञानसे पर पुरुष भी इस आत्माका ग्रहण नहीं कर सक्ते क्योंकि यह आत्मा अपने ही वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानसे ही जाना जाता है इसलिये भी अलिग ग्रहण है । इसतरह अलिग ग्रहण शब्दकी व्याख्याने शुद्ध जीवका स्वरूप जानने योग्य है यह अभिप्राय है। भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने यह बताया है कि यह आत्मा पुद्गलके गुण जो स्पर्श रस गंध वर्ण है उनसे रहित है इसलिये पुद्गलसे भिन्न अमूर्तीक है । तथा इसी लिये यह आत्मा प्रगट देखनेमे नहीं आता है न इससे पौगलिक शब्द होते हैं न इसके कोई समचतुरस्र संस्थान आदि शरीर सम्बन्धी आकार हैं और न यह किसी चिह्नसे जाना जासका है। न तो कोई पुरुष आप ही अपनी इंद्रियोसे अपनी आत्माको देख सक्ता है या मालूम कर सक्ता है, न दूसरे पुरुष दूसरेकी आत्माको किसी इंद्रियसे जान सक्ते हैं, न कोई किसी अनुमानसे अपनी आत्माको जान सकता है न दूसरे ही पुरुष किसी अनुमानसे दूसरेकी आत्माको जान सक्ते है, न कोई शिखा जटा आदि नानाप्रकार साधुभेषको धरकर अपनी आत्माको जान सक्ता है न दूसरे पुरुष किसी भी भेषके ज्ञानसे
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy