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द्वितीय खंड।
[३१५ इस दूसरेकी आत्माको जान सक्ते हैं, इसलिये यह आत्मा अपने आपको आप ही अपने स्वसंवेदन ज्ञानसे ही जान सक्ता है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। यह आत्मा शुद्ध ज्ञान चेतनामय सर्व पुद्गलादि द्रव्योंसे भिन्न लक्षणको रखनेवाला है । यद्यपि चेतना गुणकी अपेक्षा सर्व आत्माएं समान है तथापि सत्ताकी अपेक्षा भिन्न २ है तौभी इस मोक्षवांछक पुरुषको उचित है कि शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिसे सर्व ही आत्माओंको शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्यमय, अविनाशी, अमूर्तीक अपने अत्माके समान देखकर सर्वसे रागद्वेष छोडकर सामान्यतासे शुद्ध आत्माके अनुभवमें तन्मय हो परम समताको प्राप्त करे, जैसा श्री अमृतचद्रस्वामीने पुरुषार्थसिद्धयुपायमे कहा है- नित्यमपि निरुपले सरूपसमवस्थितो निरुपघातः । - गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्कुरति विशदतमः ॥ २२३ ॥
कृतकत्त्यः परमपदे परमात्मा सकावषयविषयात्मा । । । परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमये नन्दति सदैव ॥ २२४ ॥
भावार्थ-यह आत्मा नित्य ही कर्मोंके लेपसे रहित है, अपने स्वरूपमें स्थित है, किसीके द्वारा घातसे रहित है, आकाशके समान अमूर्तीक है, परम पुरुष है, अत्यन्त शुद्ध, परम पदमें स्फुरायमान होनेवाला है, अपने निज पदमें कृतकृत्य है, सकल जानने योग्यका ज्ञाता स्वरूप है, यही परमात्मा है, परमानंदमें डूबा हुआ है, तथा ज्ञानमई सदा ही प्रकाशमान होरहा है । इसतरह शुद्ध आत्माके शुद्ध खरूपर दृष्टि रखकर इसी खरूपका एकाग्र होकर अनुभव करना चाहिये । यही स्वात्मानुभव सिद्धपदका कारण है ॥ ८३ ॥
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