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श्रीप्रवचनसारंटीका ।
उत्थानिका- आगे जव आत्मा मूर्तीक शुद्ध
तव इस अमूर्तीक जीवका मूर्तीक पुद्गल कमौके साथ बंध होता है ऐसा पूर्व पक्ष करते हैं
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स्वरूप है
किस तरह
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मुतो वादिगुणो वज्मदि फासेहि अण्णमणेहि । तव्विवदो अप्पा चंधदि कि पोगलं कम्मं ॥ ८४ ॥ मूर्ती रूपादिगुणो बनते सशैरन्योन्यैः ।
तद्विपरीत आत्मा बध्नाति कथं पेद्रले कर्म ॥ ८४ ॥ अन्यसहित सामान्यार्थः - ( रूवादिगुणो ) स्पर्श रस गंध चर्ण गुणधारी (मुत्तो) मूर्तीक पुद्गल द्रव्य (फासेहिं) स्निग्ध, रूक्ष स्पर्श गुणोके निमित्तसे (अण्णम् अण्णेहिं) एक दूसरेसे परस्पर ( वज्झदि) बंध जाते हैं । ( तव्विरीदो) इससे विरुद्ध अमूर्तीक (अप्पा) आत्मा ( किध ) किस तरह ( पोग्गलकम्मं ) पुद्गलीक कर्मवर्गणाको (द) बांधता है ।
विशेषार्थ :- निश्वयनयसे यह आत्मा परमात्मा स्वरूप है, निर्विकार चैतन्य चमत्कारी परिणतिमें वर्तनेवाला है, बंधके कारण स्निग्ध रूक्षके स्थानापन्न रागद्वेषादि विभाव परिणामोसे रहित है और अमूर्ती है सो किसतरह पुद्गल मूर्तीक कर्मोंको बांध सक्ता है ? किसी भी तरह नहीं बांध सक्ता है ऐसा पूर्वपक्ष शंकाकारने किया है।
भावार्थ - शंकाकार कहता है कि जब यह आत्मा स्वभावसे अमूर्तीक वीतराग ज्ञान स्वभाव है तब इसके जड़ पुद्गल - स्पर्श रस गंध वर्णवान् पुद्गलोंका सम्बन्ध कैसे होसक्ता है। मूर्तीकका मूर्तीकके साथ स्निग्ध व रूक्ष गुणोंके निमित्तसे बंध होता है परंतु अमूर्तीका मूर्ती के साथ कैसे होसक्का है ? ॥ ८४ ॥