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'द्वितीयं खंड।" [३०७ " उत्थानिका-आगे आचार्य समाधान करते हैं कि किसी अपेक्षा व् नयके द्वारा अमूर्तीक मात्माका पुद्गलसे बंध होनाता है
रूवादिपहिं रहिदो पेच्छदि जाणादिः स्वमादीणि । ' दव्वाणि गुणे य जधा तध यधो तेण जाणोहि ॥ ८५ रूपादिकैः रहितः पश्यति नानाति रूपादीनि । द्रव्याणि गुणाश्च यथा तथा बंधस्तेन जानीहि ॥ ८५ ॥
अन्वयसहित सामान्यार्थ-(जधा) जैसे (रूवादिएहि रहिदो) रूपादिसे रहित आत्मा (रूवमादीणि दव्वाणि गुणेय ) रूपादि गुणधारी द्रव्योको और उनके गुणोंको (पेच्छदि जाणादि) देखता नानता है (तघ) तैसे ( तेण) उस पुद्गलके साथ (बंधो ) बंध (जाणीहि ) जानो।
विशेषार्थ-जैसे अमूर्तीक व परम चैतन्य ज्योतिमें परिणमन रखनेके कारण यह परमात्मा वर्ण आदिसे रहित है, ऐसा होता हुआ भी रूप, रस, गन्ध, स्पर्शसहित मूर्तीक द्रव्योको और उनके गुणोको मुक्तावस्थामें एक समबमें वर्तनेवाले सामान्य और विशेपको ग्रहण करनेवाले केवल दर्शन और केवलज्ञान उपयोगके द्वारा ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे देखता जानता है यद्यपि उन ज्ञेयोंके साथ इसका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है अर्थात् वे मूर्तीक द्रव्य और गुण भिन्न हैं और यह ज्ञाता इप्टा उनसे भिन्न है। अथवा असे कोई भी संसारी जीव विशेष भेदज्ञानको न पाता हुआ काट व पाषाण आदिकी अचेतन जिन प्रतिमाको देखकर यह मेरेद्वारा। पूजने योग्य है ऐसा मानता है। यद्यपि यहां सत्ताको देखने मात्र दर्शनके साथ उस प्रतिमाका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि