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________________ ३०८] श्रीप्रवचनसारटोका । दृश्य दर्शक सम्बन्ध है अथवा जैसे कोई विशेष भेदज्ञानी समवशरणमें प्रत्यक्ष जिनेश्वरको देखकर यह मानता है कि यह मेरेद्वारा आराधने योग्य हैं, यहा भी यद्यपि देखने व जाननेका जिनेश्वरके. साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि आराध्य तथा आराधक सम्बन्ध है तैसे ही मूर्तीक द्रव्यके साथ बन्ध होना समझो । यहां यह भाव है कि यद्यपि यह आत्मा निश्चयनयसे अमूर्तीक है तथापि अनादि कर्मबन्धके वासे व्यवहारसे मूर्तीक होता हुओं द्रव्यबधके निमित्त कारण रागादि विकल्परूप भावबंधके उपयोगको करता है। ऐसी अवस्था होनेपर यद्यपि मूर्तीक द्रव्यकर्मके साथ आत्माका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि पूर्वमें कहे हुए इप्टातसे सयोग सम्बन्ध है इसमें कोई दोष नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने अपने आत्माके साथ द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिका बंध होसक्ता है इस बातको स्पष्ट किया है। जहां मात्र जेय ज्ञायक सम्बन्ध है वहां मूर्तीक द्रव्य और गुणोको अपने ज्ञान खभावसे वीतरागतारूप जानते हुए भी आत्मा बन्धको प्राप्त नहीं होता है । केवलज्ञानी अरहंत परमात्मा सर्व मूर्तीक व अमूर्तीक द्रव्योको परम वीतरागतासे देखते जानते हैं इसलिये उनके बन्ध नही होता । इसी तरह अन्य वीतराग सम्यग्दृष्टी आत्माए भी जगतके मूर्तीक अमूर्तीक पदार्थोको यदि उदासीनतासे उनके वस्तु स्वरूपको मात्र समझते हुए देखते नानते है तो उनको इस दर्शन ज्ञानसे भी बन्ध नहीं होता । बन्धका कारण रागद्वेष है । संसारी आत्मा अनादि कर्मबन्धके सम्बन्धके कारण उन कोके उदयके निमित्तसे रागद्वेष परिणति कर लेता है
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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