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द्वितीय खंड |
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इसीको अशुद्ध उपयोग कहते हैं । इस अशुद्ध उपयोगका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाएं स्वयं कर्मरूप हो आत्माके साथ संयोगरूप ठहर जाती हैं ।
जिनके रागद्वेष नहीं होता वे मूर्तीक पदार्थों को देखते जानते हुए भी बन्धको प्राप्त नहीं होते । शुद्ध आत्मामें रागद्वेष नहीं होते इसलिये वे मूर्तीक कर्मोंसे नहीं बंधते हैं। यहां आचार्यने यह दिखाया है कि जैसे यह आत्मा स्वरूपसे अमूर्तीक होता हुआ भी मूर्तीक पदार्थोंको देखता जानता है इसी तरह मूर्तीकके साथ सयोग भी पालेता है । वास्तवमे जो आत्मा किसी भी समयमें
अमूर्तक शुद्ध कर्मबंधसे रहित होता तौ वह कभी भी बन्धमें नही पडता, क्योंकि विना रागद्वेष मोहके आत्माके द्रव्यकमका बध नहीं होता । यह आत्मा इस ससारमें अनादिकालसे ही धरूप ही चला आरहा है - स्वभावसे अमूर्तीक होनेपर भी इसका कोई भी अंशरूप प्रदेश अनंत द्रव्यकर्म वर्गणाओके आवरणसे रहित नहीं है, इसलिये व्यवहारमें इस ससारी आत्माको मूर्तीक कहते हैं और इस मूर्तीक आत्माके ही मूर्तीक पुद्गलोंका बंध होता है । जैसे मूर्तीक आत्मा राग द्वेष मोहपूर्वक पदार्थोंको देखता जानता है वैसे यह कर्मपुद्गलोसे भी सयोग पा जाता है । जैसे देखते जानते हुए मूर्तीक द्रव्योका आत्मा के साथ न मिटनेवाला तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है किन्तु मात्र राग सहित ज्ञेय ज्ञायक संबंध है वैसे मूर्ती आत्माका द्रव्य कर्मोंके साथ तादात्म्य संबंध नहीं है किंतु मात्र संयोग सम्बन्ध है | मूर्तीक आत्मापर प्रत्यक्ष मूर्तीक पदार्थोंका असर पड़ता दीखता है । जैसे मादक वस्तुको पीलेनेसे ज्ञान बिगड़