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________________ ३१० ] श्रीप्रवचनसारटोका | जाता है। अथवा सराग मूर्तिको देखनेसे सराग भाव व वीतराग मूर्तिको देखने से वीतराग भाव होता है । अथवा जैसे सरागी पुरुष बुद्धिपूर्वक भोजन पान वस्त्रादि ग्रहण करता है तैसे वही सरागी अबुद्धि पूर्वक कर्म सिद्धांतके नियमसे कर्मवर्गणाओको ग्रहणकर पूर्ववद्ध मूर्तीक द्रव्यके साथ बांध लेता है। टीकाकारने तीन दृष्टांत दिये हैं- एक केवलज्ञानी परमात्माका कि वे अमूर्तीक होते हुए भी ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे मूर्तीक द्रव्योको देखते जानते हैं तौभी उनमे तन्मयी नहीं है। दूसरा साधारण भेद ज्ञान रहित पुरुषका कि वह अरहंतकी मूर्तिको देखकर अपने दर्शक व दर्शन सम्बन्धको जोड़ देता है कि यह पूजने योग्य हैं व पूजक हूं। तीसरा एक विशेष भेद विज्ञानीका जो समवशरणमे साक्षात् अरहंतको देखकर उनसे पूज्य पूजक सम्बन्ध करता है । इन दृष्टांतोसे यही दिखलाया है कि जैसे इनमे एक तरहका संयोग सम्बन्ध है वैसा ही आत्माका द्रव्यकर्मो के साथ संयोग सम्बन्ध है । जो मूर्तिको अरहंतकी स्थापना समझकर उस मूर्तिको पूजकर अरहंतकी मैंने पूजा की ऐसा समझते हैं वे तो भेदविज्ञानी हैं । परंतु जो मूर्तिको ही साक्षात् अरहंत एकांतसे मान ले और स्थापना है ऐसा न समझे उसे वृत्तिकारने विशेष भेद विज्ञान रहित पुरुष कहा है ऐसा भाव झलकता है । श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने अपनी वृत्तिमें इसतरह दिखलाया है कि मूर्तीक द्रव्यको जो राग सहित देखता जानता है वही स्वयं रागी होकर उससे बंध जाता है । इसके दो दृष्टांत दिये हैं- एक तो अज्ञानी बालकका जो मिट्टीके बैलको अपना जानता है । दूसरे
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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