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श्रीप्रवचनसारटीका ।
गुण पर्यायको
होनेसे कायवान हैं ऐसा बताया है। फिर कालद्रव्य अच्छी तरह स्पष्ट किया है तथा सिद्ध किया है कि एक समय कालाणु द्रव्यकी पर्याय है । यदि कालाणु न होता तो समयरूप: व्यवहार, काल नहीं होता था । फिर तिर्यक् प्रचयं तथा ऊर्ध्व प्रचयक्का स्वरूप बताया है कि जो द्रव्य बहु प्रदेशी, हैं उनके विस्ताररूप प्रदेशोंके समूहको तिर्यक् प्रलय कहते हैं । सब द्रव्यों में समय समय : . जो पर्यायें होती हैं. उन पर्यायो समूहको ऊर्ध्व प्रचय कहते हैं। फिरु यह बताया है कि जिसके एक भी प्रदेश न होगा वह द्रव्य नहीं हो-सक्ता वह शून्य होगा | आकार बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नही रह सक्ती है। इस तरह छः द्रव्योंका स्वरूप दिखाते हुए विशेष ज्ञेयोंका: कथन किया- आगे दिखलाया है कि संसारी जीव किसी भी शरीर में आयु श्वासोश्वास इंद्रिय तथा बल ऐसे चार व्यवहार प्राणोंके :निमित्तसे जीते रहते हैं । इन प्राणोके द्वारा मोहः रागद्वेषसे वर्तन. करते हुए कर्मों के फलको भोगते हैं फिर नवीन द्रव्यकमको धांव लेते हैं । फिर यह बताया है कि जबतक यह संसारी आत्मा शरीरादिसे ममता नही छोड़ता है तबतक प्राणोंका वारवार ग्रहण करना मिटता नही अर्थात् यह जीव एक भवसे दूसरे भवमें भ्रमण किया करता है | परन्तु जो इंद्रियविजयी होकर इन कर्मोंके शुभ अशुभ फलमें रंजायमान न हो और अपने आत्माको ध्यावे तो द्रव्य प्राणोका संबंध अवश्य छूट जावे । इस तरह सामान्य भेदज्ञानको कहकर विशेष भेदज्ञानको कहा है कि नरनारकादि अवस्थाएं नाम -. कर्मके उदयसे होती हैं- जीवका स्वभाव नहीं हैं । जो इस तरह ' वस्तुकें स्वभावकों समझता है वह अन्य अशुद्ध अवस्थाओं में व
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