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'द्वितीय खंड।
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करता है। जीव परिणामी है इससे उसके परिणाम होते हैं । जीव भावोंका कर्ता है, भावोंका निमित्त पाकर जो द्रव्य कर्म बंध जाते हैंउनका कर्ता नहीं है । इस तरह आत्मा अपने ही शुद्ध व अशुद्ध भावोका कर्ता है ऐसा कहकर उसकी चेतनाके तीन भेद बताए हैं ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना । जहां अपने शुद्ध ज्ञानका ही अनुभव किया जावे वह ज्ञानचेतना है जो मुख्यतासे केवलज्ञानीके होती है। जहां अशुभ, शुभ व शुद्ध उपयोगमें वर्तनरूप कर्मका अनुभव हो वह कर्मचेतना है, यह यथायोग्य छद्मस्थोंके होती है । जहां कर्मके फल सुख तथा दुःखका अनुभव किया जावे यह कर्मफलचेतना है, यह बुद्धिपूर्वक अनुभवकी अपेक्षा सर्व संसारी जीवोंके प्रमत्त गुणस्थानतक है। फिर कहा है कि जब यह आत्मा अपने शुद्ध स्वभावमें परिणमन करता है तब यह आत्मा आप ही कर्ता, कर्म, करण तथा फलरूप होता है । इस तरह द्रव्यका सामान्य स्वरूप । कहकर फिर छः द्रव्योंका विस्तारसे वर्णन है। उनमें जीव पुद्गल संसारमें हलनचलन क्रिया करते है शेष चार द्रव्य अक्रिय हैं। जीवादि अमूर्तीक हैं उनके गुण भी अमूर्तीक हैं । पुद्गल मूर्तीक है इससे उसके गुण भी मूर्तीक है। पुद्गलमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है इससे मूर्तीक है । पुद्गलोके सूक्ष्म तथा स्थूल अनेक परिणमन हैंशब्द आदि पुद्गलकी ही पर्याय है। कर्मवर्गणा भी सूक्ष्म पुद्गल है। फिर धर्मद्रव्यका जीव पुद्गलोंको गमनमे उपकार, अधर्मका उनकी स्थितिमें उपकार आकाशका सर्वको अवगाह देना उपकार, कालमा सर्वको पलटाना ऐसा उपकार बताया है । फिर काल एक प्रदेशी अभिलाषी होनेसे अप्रदेशी है, शेष पांच द्रव्य बहु प्रदेशी