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________________ द्वितीय खंड | [ ३८५ परद्रव्योंमें मोह नहीं करता है । फिर आत्माके उपयोगकी तीन अवस्थाओंको बताया है कि यदि इसका उपयोग अरहंतादिकी भक्ति में व दया दान भादिमें लीन होता है तो इसके शुभोपयोग होता है जिससे यह जीव मुख्यतासे पुण्यकमौसे बन्ध जाता है ।" जब इसका उपयोग इंद्रिय विषयोंमें-क्रोधादि कषायों में उलझा होता है तथा दुष्ट चित्त, दुष्ट वचन, दुष्ट कायचेष्टा, हिंसा आदि पापोंमें फंसा होता है तब उसके अशुभोपयोग होता है जिससे यह जीव पापकर्माको बांधता है और जब इसके ये दोनों ही उपयोग नहीं होते तत्र यह सर्व परद्रव्योंमे मध्यस्थ होकर अपने शुद्धात्माको ध्याता हुआ यह विचारता है कि मैं शरीर वचन मनसे भिन्न हूं-न मै निश्वयसे उनका कर्ता हूं, न करानेवाला हूं, न अनुमोदक हूं वे पुद्गलसे बने हुए हैं, मैं पुद्गलसे भिन्न हूं तब इसके निर्विकल्प समाधि होती है उस समय यह जीव शुद्धोपयोगी होता है। यही शुद्धोपयोग बंघसे छुड़ानेवाला है । यहां प्रकरण पाकर यह कहा है कि पुद्गल के परमाणुओंका दो गुणांश अधिक स्निग्धता या रूक्षता के होने पर परस्पर बध होजाता है। इसी बंधके कारण से औदारिक, कार्माण आदि शरीरोके स्कंध बनते हैं । यह लोक सूक्ष्म कार्माण वर्गणाओसे सर्व तरफ भरा हुआ है । वे स्वयं जीवके अशुद्ध उपयोगका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्म रूप हो जाते है । उन्हीं कर्मोंके उदयसे चार गतियों में शरीर व इंद्रियें आदि बनती । इस कारण यह आत्मा किसी भी तरह स्वभावसे शरीर व द्रव्य कमका कर्ता नहीं है - वे भिन्न हैं, आत्मा भिन्न है । आत्मा अमूर्तीक है, चैतन्य गुणमई है, इंद्रियोंके द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है, किन्तु स्वानुभवगम्य है । २५
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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