________________
श्रीप्रवचनसारटोका ।
फिर यह बताया है कि आत्माके साथ जो कर्मोका बन्ध,
ኣ
I
होता है सो असम्भव नहीं है । जैसे आत्मा रागद्वेषपूर्वक मूर्तीक द्रव्योंको जानकर ग्रहण करता है वैसे रागद्वेषसे वन्ध भी होजाता है | जैसे मादक पदार्थ नेड़ होनेपर भी आत्माके ज्ञानमे विकार कर देता है वैसे मूर्तीक कर्म भी अशुद्ध आत्मामें विकार कर देते हैं । वास्तवमें बंधके तीन भेद हैं। जीवके रागादि निमित्तसे पूर्ववद्ध पुलों के साथ नए कर्मपुद्गलोका स्निग्ध रुक्ष गुणके द्वारा बंध होता है इसको पुलबंध कहते हैं । जीवका रागादिरूप परिणमन सो जीवबंध है । तथा आत्मा के प्रदेशोमे अनन्तानन्त कर्म पुद्गलोंका परस्पर अवगाहरूप रहना सो जीव पुदुलबन्ध या उभयवन्ध है । यदि यह जीव रागी, द्वेपी, मोही न हो तो कोई भी बन्ध न हो । रागी को बांधता है व वीतरागी कर्मोंसे छूटता है। इस arrat वैराग्यभाव लानेके लिये शुद्ध निश्चयनयके द्वारा विचारना चाहिये कि पृथ्वी आदि छःकायके जीवों की पर्यायें . आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं अर्थात् मै निश्वयसे पृथ्वी आदि " स्थावर काय तथा त्रकायसे भिन्न शुद्ध चैतन्यमय हूं। जो अज्ञानी आत्माके शुद्ध खभावको नहीं पहचानते हैं वे अहंकार व ममकार करते हुए अपने रागद्वेष मोह भावके कर्ता हो नाते हैं - आत्मा कभी भी पुद्गल कर्मोका कर्ता नही होता है । जब यह अपने अशुद्ध भाव करता है तब कर्मकी धूल स्वयं चिपट जाती है और नव यह शुद्धभाव करता है तब कर्मकी धूल आप ही छूट जाती है । जो मुनि होकर भी शरीरादिमें ममता न छोड़े वह कभी भी समताभावरूप भावमुनिपनेको नहीं पासक्ता है,,
•
३८६ ]
7