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श्रीप्रवचनसारटीका।
नो अशुद्ध संसार पर्याय है उसको त्यागने योग्य निश्चयकर उसकी शुद्ध पर्यायकी प्राप्तिका यत्न करना योग्य है जिसमें इस आत्माके सर्व गुण शुद्ध खभावमें परिणमन करते हुए अपनी सुन्दरतासे परमरमणीकताको विस्तारें । इस लिये अपने शुद्ध स्वभावपर लक्ष्य देते हुए व संसारमें रागद्वेष न करते हुए हमको साम्यभावरूफ वीतराग विज्ञानमय भावका मनन करना चाहिये। यही शुद्ध पर्याय होनेका मत्र है ॥ १९ ॥
इस तरह गुण और गुणीका व्याख्यान करते हुए प्रथम गाथा तथा द्रव्यका अपने गुण व पर्यायोंसे भेद नही है ऐसा कहते हुए, दूसरी गाथा इस तरह खतंत्र दो गाथाओंसे छठा स्थल पूर्ण हुआ।
उत्थानिका-आगे द्रव्यका द्रव्यार्थिक नयसे सत् उत्पाद, और पर्यायार्थिक नयसे असत् उत्पाद दिखलाते हैं--- एवं विहं सहावे व्वं दध्वत्थपजयत्थेहि । सदसम्भावणिवद्ध पाडुभाव सदा लहदि ॥ २० ॥ एव विध स्वभावे द्रव्य द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम् । सदसदभावनिवद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ॥ २० ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थ-(एवं विहं) इस तरहके (सहावे) स्वभावको रखते हुए (दव्वं ) द्रव्य (दव्वत्थ पज्जयत्थेहि) द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे (सदसम्भावणिबद्धं) सद्-' । भावरूप और असदभाव रूप (पाडुब्भावं) उत्पादको (सदा लहदी) सदा ही प्राप्त होता रहता है।
विशेषार्थ:-जैसे सुवर्ण द्रव्यमें जिस समय द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा की जाती है अर्थात् द्रव्यकी अपेक्षासे विचार किया जाता,