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। द्वितीय खंड। भावार्थ-वीतराग जिनेन्द्रोंने उत्पाद व्यय नौव्य लक्षणकाधारी गुण पर्यायवान द्रव्यको कहा है। जीव तथा अनीव द्रव्यका अपनी अपनी जातिको न छोड़ते हुए अन्य २ रूप अवस्थाको प्राप्त करना सो उत्पाद है। अपनी २ जातिमें विरोध न डालते हुए दोनों प्रकार द्रव्यका अपनी २ पूर्व अवस्थाका त्यागना उसको व्यय कहते हैं। अनादिसे अपने २ स्वभावकी अपेक्षा द्रव्यका उत्पाद
और व्ययका जो अभाव है उसको श्री जिनेन्द्रोंने ध्रौव्य कहा है। अर्थात् द्रव्योंमें अवस्थाका उत्पाद व्यय होते हुए भी द्रव्योंके स्वभावाको स्थिर रहना ध्रौव्य है। द्रव्यका विधान या स्थापन करनेवाला गुण है । अर्थात् गुणोंका और द्रव्यका सदा होसे एक रूप तादात्म्य सम्बन्ध है। द्रव्यमें जो विक्रिया या अवस्था होती है वह 'पर्याय है । द्रव्य इन दोनों गुण पर्यायोंका अयुत सिद्ध समुदाय है
अर्थात् अमिट अनादि समुदाय है। कभी गुण या पर्याय केहींसे 'आकर द्रव्यमें मिले नहीं । सामान्य, अन्वय, उत्सर्ग शब्द गुणके 'वाचक हैं तथा व्यतिरेक, विशेष, भेद शब्द पर्यायके वाचक हैं।
गुणोंके विना" द्रव्य नहीं होता है न द्रव्यके विना गुण होते हैं 'इस लिये द्रव्य और गुणोंकी एकता है। पर्यायके विना भी द्रव्य नहीं होता ने द्रव्यके विना पर्याय होती है इसलिये महर्षियोंने द्रव्य और पर्यायुकी अविनाभावना या एकपना बताया है। संत रूप पदार्थका नाश नहीं होता असत् रूप पदार्थका जन्म नहीं होता । सत रूप पदार्थ ही अपने गुणपर्यायोंमें उत्पाद व्यय करते रहते हैं । इस तरह नि संदेह होकर ऐसा बयंका खरूप समझकर अपनी ही आत्माकी तरफ लक्ष्य देना चाहिये। अपनी आत्माकी