________________
द्वितोय खंड ।
[२५३ नहीं करते हैं परन्तु लाचारीसे जो गृहस्थके आरंभ कार्य करने पड़ते हैं उनमे यथासंभव रक्षाके मावसे वर्तते हुए जो त्रस या स्थावरकी हिंसा होजाती है उससे अपनी निंदा करते हुए दयारससे सदा भीगे रहते है ऐसे महात्माओंके हृदयमें शुभोपयोग रहकर महान पुण्य कर्मका सचय करता है । इस गाथामे आचार्यने यह भी बतादिया है कि व्यवहार धर्म पंचपरमेष्ठीके गुणोमे भक्ति तथा अहिंसा धर्म है । दयारूप वर्तना अहिसा धर्मका एक अंग है। जीवोकी रक्षा हो यही भाव शुभोपयोग है। श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीने पाचपरमेष्ठियोका खरूप द्रव्यसग्रहमें इस तरह कहा है
णह चदुघाइ कम्मो दसण सुरण णवोरिय मइओ । सुहदेहत्यो ३ प्पा सुद्धो अरहो विचिंतिजो ॥
भावार्थ-जिन्होने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये है व जो. अनंत दर्शन, अनत सुख, अनंत ज्ञान व अनतवीर्यमई है व परम औदारिक शरीरमे बिराजित है तथा वीतराग आत्मा है वे अरहंत हैं उनका ध्यान करना चाहिये ।
णमम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दहा ।। पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिहरत्यो ।
भावार्थ-जिसने आठ कर्म तथा शरीरोंको नष्ट कर दिया है। जो लोक अलोकका ज्ञाता दृष्टा है, पुरुषाका है व लोकके शिखरपर विराजित है सो आत्मा सिद्ध है, उसका ध्यान करना चाहिये ।
दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे ।
अप्प पर च जुजह सो आयारेओ मुणी झयो ॥ भावार्थ-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र, सम्यक्