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२५२ ] श्रीप्रवचनसारटोका । दया पालता है उस जीवके ऐसा व इसी नातिका उपयोग शुभ कहा जाता है।
भावार्थ-इस गाथामें शुभोपयोगका वास्तविक कथन बताया है । जो यथार्थमें सम्यग्दृष्टी हैं, तत्त्वज्ञानी हैं, भेद विज्ञानसे खपरके ज्ञाता हैं उन्हीके ज्ञानमें अरहंत सिद्ध साधुओंका सच्चा स्वरूप व सच्चा प्रेम झलकता है व वे ही सच्चे हार्दिक दयावान होते हैं।
वे ही इस वातको जानते हैं कि जिन्होंने अनन्तानुवन्धी कषाय और मिथ्यात्वको जीत लिया है, वेही जिन है उन्हींमें इन्द्र तुल्य चार घातिया कर्मोको क्षय करके अनंतज्ञान, दर्शन, सुख वीर्यको लब्धकर स्वरूप मगन रहनेवाले तथा क्षुधा, पिपासा, रोगादि अठारह दोषोसे रहित व अपनी दिव्यध्वनिसे मोहांधकारको नाशकर ज्ञान ज्योति प्रगटानेवाले श्री जिनेन्द्र या अरहंत होते हैं। तथा जो सर्व कर्म बंध रहित खरूपसे पूर्ण शुद्ध व निजानन्दमें तन्मय हैं वे सिद्ध हैं, जिन्होने सव कुछ सिद्ध कर लिया है व फिर निनको कभी संसारमें फंसना नहीं है तथा जो भेदाभेद रत्नत्रयके प्रतापसे मोक्षका साधन करते हैं वे गृह रहित दिगम्बर साधु है । उनका उपदेश मोक्षमार्गमें प्रेरणा करनेवाला है। सर्व जीवोंको अपने समान जाननेवाले तथा व्यवहारमें प्राणोंके भेदसे बस स्थावर प्राणी है ऐसा समझनेवाले ज्ञानी सम्यग्दृष्टी जीव दयाके सागर होते हैं वे किसी भी जीवको कष्ट देना नहीं चाहते हैं । इसी लिये साधु पदमें वे स्थावरतककी दया पालते हैं, परंतु जब गृहस्थ अवस्थामें होते हैं तब संकल्प करके त्रस घात