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द्वितीय खंड।
[२५१ प्रयोजन यह है कि जो शुद्धोपयोगके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंके नाशको चाहते हैं ऐसे ही साधु प्रशसनीय हैं, क्योकि शुद्ध वीतराग भाव ही बन्धनाशक तथा निनानन्ददायक और साक्षात् मुक्तिका मार्ग है ॥ ६॥
इस तरह शुभ, अशुभ, शुद्ध उपयोगका सामान्य कथन करते हुए दूसरे स्थलमे दो गाथाएँ समाप्त हुई।
उत्थानिका-आगे विशेप करके शुभोपयोगका स्वरूप कहते हैंजो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तधेव अणगारे । जोवे य साणुकंपो उपभोगो सो सुहो तस्स ॥ ६८ ॥ यो जानाति जिनेन्द्रान् पश्यति सिद्धास्तथैवानागारान् । जीवे च सानुकम्प उपयोगः स शुभस्तस्य ।। ६८ ॥
अन्वयसहित सामान्याथ-(जो) जो जीव (निणिदे) जिनेन्द्रोको (जाणादि) जानता है (सिद्धे) सिद्धोको (पेच्छदि) देखता है। (तधेव) तसे ही (अणगारे) साधुओंका दर्शन करता है (य) और (नीवे साणुकपो) जीवोपर दया भाव रखता है (तस्स) उस जीवका (सो उवओगो) वह उपयोग (सुहो) शुभ है।
विशेपार्थ-जो भव्य नीव अरहंतोको ऐसा जानता है कि वे अनन्तज्ञान आदि चतुष्टयके धारी है तथा क्षुधा आदि अठारह दोपोसे रहित है तथा सिद्धोको ऐसा देखता है कि वे ज्ञानावरणादि आठ कर्म रहित हैं तथा सम्यक्त आदि आठ गुणोमे अंतर्भूत अनन्त गुण सहित है तैसे ही अनगार शब्दसे कहने योग्य निश्चय व्यवहार पच आचार आदि शास्त्रोक्त लक्षणके धारी आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंकी भक्ति करता है और बस स्थावर जीवोंकी