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________________ २५०] श्रीप्रवचनसारटोका । गति शुभ, शुभग, आदेय, यश आदि नाम कर्मकी शुभ प्रकृतियें, तथा देव मनुष्य व तिथंच आयु कर्म, द्रव्य पुण्य कर्म हैं जब कि असाता वेदनीय; नीच गोत्र; नरक गति अशुभ, दुर्भग, दुखर, अनादेय आदि नाम कर्मकी अशुभ प्रकृति, तथा नरक आयु ये द्रव्य पाप कर्म हैं। ___ जब इस जीवका उपयोग मंदकषाय रूप होकर दान पूजा जप तप स्वाध्यायमें लीन होता है तब शुभोपयोग कहलाता है । उस समय घातिया कोके सिवाय चार अघातिया कर्मोमें द्रव्य पुण्य कर्मका ही बंध होता है और जब इस जीवका उपयोग तीव्र कषायरूप होकर हिसा, असत्य, पर हानि, विषय भोग आदिमें लीन होता है तब अशुभ उपयोग होता है उस समय घातिया कोंके सिवाय चार अघातिया कौमे द्रव्य पाप कर्मका ही बंध होता है। ___ शुभ व अशुभ कलिमाको बन्धका कारण जानकर, हमको मुक्ति पानेके लिये एक शुद्धोपयोगकी भावना ही कर्तव्य है। स्वामी अमितिगति बड़े सामायिकपाठमें कहते हैंपूर्व कर्म करोति दुःखमशुभं सौख्य शुभ निर्मितं । । विज्ञायेत्यशुभ निहंतु मनसो ये पोषयते तरः ॥ जायते समसंयमैकनिधयस्ते दुर्लभा योगिनो । ये त्वत्रोभयकर्मनाशनपरास्तेषां हिमत्रेच्यते ॥ ९० ॥ भावार्थ-पूर्वमे बांधा हुआ अशुभकर्म दुःख पैदा करता है जद कि शुभ कर्म सुख पदा करता है, ऐसा जानकर जो इस अशुभको नाश करनेके भावसे तप करते हैं और समता तथा संयमरूप होनाते हैं ऐसे योगी भी दुर्लभ हैं। परंतु जो पुण्य पाप दोनो ही प्रकार के कर्मोके नाशमें लवलीन हैं उन योगियोकी तो बात ही क्या कहनी।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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