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द्वितीय खंड।
[ २४६ पापका संचय होता है-इन दोनोंके विना पुण्य पापका वध नहीं होता है अर्थात् जब दोष रहित निन परमात्माकी भावनारूपसे शुद्धोपयोगके चलकेद्वारा दोनों ही शुभ अशुभ उपयोगोंका अभाव किया जाता है तब दोनो ही प्रकारके कर्मबंध नही होते है।
भावार्थ-यहां यह दिखलाया है कि कर्मबंधका कारण कषायकी कलुपता है। जब आत्मा निष्कपाय या वीतराग अर्थात् साक्षात् शुद्धोपयोगमय होता है तब इसके कर्मबंध नहीं होता है। ११ । गुणस्थानसे कपायका उदय नहीं है। सयोग केवली तक योगोंका सकम्पपना है इसीलिये मात्र साता वेदनीय नामका पुण्यकर्म एक समयकी स्थितिधारी आता है
और झड़ जाता है । जिस बंधमें कमसे कम अतर्मुहर्त स्थिति पड़े उसही को बंध कह सक्ते है ऐसा वध सूक्ष्मलोभ नामके दशवें गुणस्थान तक ही होता है । आयु कर्मके वधके अवसरपर आठ कर्म योग्य व शेप समयोंमें सात कर्म योग्य पुद्गलोंका आश्रव तथा बंध होता है । इनमें चार घातिया कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतराय द्रव्य पाप कर्म हैं तौभी इनका बंध सदा ही हुआ करता है । क्योंकि ज्ञानदर्शनमें जितनी कमी है व वीर्यमे जितनी कमी है व मोहकी नितनी कालिमा है उतनी ही थिरता उपयोगकी नहीं होती है। इस अथिरताके दोपसे हर समय इन चार घानिया कर्माका बंध हुआ करता है, परतु जब आत्मामें शुभोपयोग होता है तव इन पाप कर्मोंमें अनुभाग बहुत हीन पड़ता है, अशुभोपयोगके होनेपर तीव्र पड़ता है । अघातिया कर्मोंमे पुण्य पापके भेद हैं। साता वेदनीय; उच्च गोत्र, देव मनुष्य