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श्रीप्रवचनसारटीका |
भावार्थ- शुभ उपयोग उससे पुण्यबन्ध उसका फल संसारीकसुख, अशुभ उपयोग उससे पापबन्ध, उसका फल दुःख, इन छहों में व्यवहारमें पहले तीन हितकारी हैं इससे ग्रहण योग्य हैं तथा दूसरे तीन हितनाशक हैं इससे त्यागने योग्य हैं । उनमें भी 1 निश्चयसे आदिका शुभोपयोग त्यागने योग्य है जिसके त्याग होते हुए शेष दो भी स्वयं नहीं होते अर्थात् पुण्यबन्ध व सांसारिक सुख नहीं होते । शुभको छोड़कर शुद्धोपयोग होते हुए अन्तमें परमपदको यह आत्मा प्राप्त कर लेता है || ६६ ॥
उत्थानिका- आगे फिर कहते हैं कि जब यह अशुद्ध उपयोग ही नरनारकादि पर्यायोंके कारणरूप परद्रव्यमई पुद्गलकर्म के बंधका कारण होता है तब किस कर्मका कौन उपयोग कारण हैउपभोगो जदि हि सुही पुण्णं जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तथ पावं, तेसिमभावे ण चयमत्थि ||६|| उपयोगो यदि हि शुभः पुण्य जीवस्य संचयं याति । अशुभ वा तथा पाप तयोरभावे न चयोऽस्ति ॥ ६७ ॥ अन्वयसहित सामान्याय - (हि) निश्रयसे ( नदि ) यदि ( उवओगो) उपयोग (सुहो) शुभ हो तो ( जीवस्स ) इस जीवके (पुण्णं) पुण्य कर्म (संचयं जादि) का संचय होता है (वा) अथवा (सुहो) अशुभ हो ( त ) तत्र (पाव) पापका संचय होता है । (तैसिमभावे ) इन शुभ अशुभ उपयोगोंके न होनेपर (चयं ) संचय (ण अस्थि) नही होता है ।
विशेषार्थ - जब शुभ उपयोग होता है तब इस जीवके द्रव्य पुण्यकर्मका बंध होता है और जब अशुभोपयोग होता है तो द्रव्य
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