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द्वितीय खंड |
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नरनारक आदि पर्यायें होती है उन कर्मोंका वध इसी जीवके अशुद्ध उपयोगसे होता है । आत्मा चेतना गुणधारी है उसीके परिणामको उपयोग कहते है । उसके दो भेद हैं- एक दर्शन, जो सामान्यरूपसे विना आकारके पदार्थोंमे प्रवर्तन करता है। दूसरा ज्ञान - जो विशेष रूपसे आकारसहित पदार्थोंको जानता है । अल्पज्ञानीके ये दर्शन और ज्ञान उपयोग एक साथ नहीं होते है । पहले दर्शन पीछे ज्ञान होता है। ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है । जब मोहकी कलुषतासे उपयोग मैला नही रहता है तब ज्ञानदर्शनोपयोग शुद्ध होता है और शुद्धोपयोग कर्मबन्धका कारण नही होता है, परन्तु जब मोहकी कलुषतासे उपयोग मैला होता है तब वह - अशुद्धोपयोग कहलाता है । उस अशुद्धोपयोगके दो भेद हैं- एक शुभोपयोग दूसरा अशुभोपयोग । जब उपयोगमे कषायकी मन्दतासे धर्मानुराग होता है तब वह शुभोपयोग कहलाता है और जब पचेंद्वियोके विषयों में लीन रहता है व कषायोकी तीव्रतासे तीव्र क्रोध, मान, माया व लोभमे फंसकर मोही द्वेषी होता है तब वह उपयोग अशुभ उपयोग कहलाता है । ये ही दो प्रकारका अशुद्ध उपयोग कर्मबन्धका कारण है । शुभ उपयोगमे विशुद्धता तथा अशुभ
उपयोगमे सक्लेशपना रहता है ।
ऐसा जानकर शुद्धोपयोगको उपादेय मानकर उसकी प्राप्तिका सदा ही यत्न करना चाहिये। श्री आत्मानुशासन मे कहा है. - शुभाशुभे पुण्यपापे सुखदुःखे च पटु त्रयं । हितमाद्यमनुष्ठय शेषत्रयमथा हितम् ॥ २३९ ॥ तत्राग्याद्य परित्याज्य शेपो न स्तः स्वतः स्वयम् । शुभ च शुद्धे त्यक्त्वान्ते प्राप्नोति परमं पदम् ॥ २४० ॥