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द्वितीय खंड ।
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रहेगे | इनमे सत्ता लक्षण प्राप्त हैं इसीसे ये द्रव्य है । हमारा जीव जो इस पर्यायमें इस शरीरमे है वह इस शरीर में आने के पहले भी किसी न किसी अवस्थामे था तथा इस शरीरको छोड देने पर किसीन किसी अवस्थामें रहेगा । यही जीवका सपना है । यही वस्तुका स्वभाव है । ऐसा सत् स्वरूप जीव है ऐसा समझने से ही परलोक या पुनर्जन्मकी सिद्धि होती है । यदि जीव अकस्मात् पैदा होता होता तो हम एक मट्टीके पुरुषमें जीव पैदा कर देते परन्तु जगत में कोई पदार्थ नवीन नहीं पैदा होता है । सत्रका अस्तित्व सदासे है । हम एक नदीके मध्यमें कुछ पृथ्वी बनी हुईं पाते है, दो वर्ष पहले वहापर वह पृथ्वी नही थी । विचार किया जायगा तो वह पृथ्वी अकस्मात् नहीं बन गई है किन्तु नदीके पानी के साथ कहींकी मिट्टी बहकर आई है सो यहां जमती गई है। जब अधिक टकट्टी होगई तब एक पृथ्वी रूपमें दिखने लगी । कोई कोई ऐसा कहते है कि कभी इस जगतमें कुछ भी न था, एक कोई ईश्वर अमूर्तीक था फिर उसीसे सर्व होगया और यह सर्व कभी नाश होकर ईश्वरमय हो जायगा । ऐसा माननेवालोने भी अकस्मात् जगतको नही माना है । किंतु जगतको सत् रूप ही कहा है। केवल यह अपना मत प्रगट किया है कि एक ईश्वरकी एक अवस्थाविशेष यह
जगत है, कभी उसमें से प्रगट हो जाता है तथा कभी उसमें लय हो जाता है। अब यह शका अवश्य खड़ी हो जाती है कि क्या वास्तवमें एक ईश्वर ही द्रव्य है या जैन मतमे माने हुए अलग २ जीवादि छः द्रव्य है ? इस प्रश्नपर गंभीरतासे विचार किया जायगा तो यह प्रगट होगा कि जगतमे जो कोई अवस्था होती है वह मूल