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________________ द्वितीय खंड। [३६३ ही शुद्धात्मध्यानसे. अत्यन्त शुद्धि अर्थात मुक्तिको प्राप्त करता है। इससे सिद्ध हुआ कि शुद्धात्मध्यानसे जीव विशुद्ध होता है, क्योकि ध्यानसे वास्तवमें आत्मा शुद्ध होता है । इसलिये ध्यानके सम्बन्धमे चार प्रकारका व्याख्यान करते हैं । वह चार प्रकार ध्यान है । ध्यान, ध्यानसंतान, एक ध्यानचिता तथा ध्यानान्वय सूचना । इनमेंसे एक किसी विशेष भावमें चित्तको रोकनेको ध्यान कहते हैं यह ध्यान शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकार है। अव ध्यान सतानको कहते है-जहा अतर्महूर्तपर्यंत ध्यान होता है फिर अतर्महूर्त पर्यंत तत्त्वचिता होती है फिर भी अतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है पीछे फिर तत्वचिता होती है इस तरह प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानकी तरह अन्तर्महूर्त २ वीततेहुए पलटन होजावे उसको ध्यानसंतान कहते हैं । यह धर्मध्यान सम्बन्धी जानना चाहिये । शुक्लध्यान उपशम तथा क्षपक श्रेणीके चढनेपर होता है वहा बहुत ही अल्पकाल है इससे (बुद्धि पूर्वक) पलटमेरूप ध्यान सतान नही सिद्ध होता है । अब ध्यान चिताको कहते है-जहां ध्यानकी सतानकी तरह ध्यानकी पलटन नहीं है किन्तु ध्यानसम्बन्धी चिन्ता है। इस चिन्ताके बीचमे ही किसी भी कालमे ध्यान करने लगता है तौ भी उसको ध्यान चिन्ता कहते हैं । अव ध्यानान्वय सूचनाको कहते हैं कि जहा ध्यानकी सामग्रीरूप बारहभावनाका चिन्तवन है व ध्यान सम्बन्धी सवेग वैराग्य वचनोंका व्याख्यान है वह ध्यानान्वय सूचना है । ध्यानका चार प्रकार कथन ध्याता, ध्यान, ध्येय तथा फलरूप है अथवा आत, रौद्र, धर्म, शुक्ल रूप है जिनका कथन अन्य ग्रन्थोमें वर्णन किया गया है।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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