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________________ ३६२] श्रीप्रवचनसारटोका। रखता है वही महात्मा ऐसी अवस्थाको प्राप्त करलेता है जो अतीन्द्रिय आनन्दमई होती है जिससे वर्तमानमें सुखी होता है और भविण्यमें भी सुख पाता रहेगा। तात्पर्य यही है कि सुखका उपाय निन स्वरूपमें एकाग्रता प्राप्त करना है ॥ १०७ ॥ उत्थानिया-आगे कहते हैं कि निज शुद्धात्मामे एकाग्रता रूप ध्यान ही आत्माकी अत्यन्त विशुद्धि कर देता है। जो खविदमोहकलुसो विसयविरत्तो मणो णिरु भित्ता । समवद्विदो सहावे सो अप्पाणं हवदि धादा ॥ १०८ ॥ यः क्षषितमोहक्लुपो विषयविरत्तो मनो निरुध्य । समवस्थितः स्वभावे स आत्मान भवति ध्याता ॥ १०८ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थः-(जो) जो कोई (खविदमोहकलुसो) मोहकी कालिमाको क्षय करके ( विसयविरत्तो ) इंद्रियोके विषयोंसे विरक्त होता हुआ (मणो णिरुभित्ता) मनको सब तरहसे रोककर (सहावे समवविदो) अपने आत्मस्वभावमें भले प्रकार स्थिर होनाता है (सो) वही महात्मा ( अप्पाणं धादा हवदि ) आत्माको ध्यानेवाला होता है। विशेषार्थ-जो कोई पूर्व दो सूत्रोंमें कहे प्रमाण दर्शनमोह और चारित्रमोहको क्षय करता हुआ, मोह और रागद्वेषकी कलुषतासे रहित निजात्मानुभवसे उत्पन्न सुखामृतरसके स्वादके बलसे क्लुषता और मोहके उदयसे उत्पन्न विषयसुखोंकी इच्छासे रहित होता हुआ तथा विषयकषायोसे उत्पन्न विकल्पनालोंमें वर्तनेवाले मनको रोककर निज परमात्मस्वभावमें भलेप्रकार स्थित ही गुणी पुरुष अपने आत्माका ध्याता होता है । इसी
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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