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________________ द्वितीय खंड। दुःखोमें समताभाव रखता है वह ऐसा गुणवान भेदज्ञानी जीव अक्षय सुखको लाभ करता है । इससे जाना जाता है कि दर्शन मोहके नाशसे फिर चारित्र मोह्रूप रागद्वेषोको विनाश करके सुख दुःखमें माध्यस्थ लक्षणधारी मुनिपदमे जो ठहरना है उसीसे ही अक्षयसुखका लाभ होता है। भावार्थ-यहांपर आचार्यने अरहत परमात्मा होनेकाक्रम बताया है कि जब दर्शनमोहका नाश होजावे तब रागद्वेषरूप चारित्र मोहको नाश करनेके लिये सर्व परिग्रह त्याग नग्न दिगम्बर मुनिपदमे स्थिर होकर सुख दु खोमें समताभाव रखते हुए, आत्मानदरसमे भीगे हुए भावगुनिपनेके प्रतापने चारित्र मोहनीयका नाश करके फिर अन्य तीन घातिया कर्मोका भी क्षय करके अविनाशी अनत सुखको ज्ञानी आत्ना प्राप्त करलेता है । जेसे वीतरागमई आत्मानुभवसे ढर्गनमोहनी गाठ कटती है वैसेही वीतरागमई आत्मानुभवसे चारित्रमोहके फदे कट जाते है । इसलिये वीतरागमई साग्यभावरूप आत्मानुभवमे सदा ठहरनेका पुरुषार्थ करना चाहिये। श्री समयसारकलगमें कहा हैय प्रभावन मविपद्रमाणा, मुक्त फ न पर वित एर तृप्त । अपासणीयनु , नि. शर्मम त तास । ३९ ॥ सामार्थ-जो पहले रागादिमागोसे वादे हुए कर्मरूपी विष वृक्षोने सुखदु ख फालोको लागि मात्सरलगे तृत होता हुआ नही भोगता है अर्थात् उन सासारिक सुखदु खोमे समताभाव
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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