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' द्वितीय ' खंड |
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शक्तिके योगसे असंख्यात प्रदेशी लोकमे ही सर्व द्रव्योका स्थान पालेना विरोधरूप नहीं है।
भावार्थ - इस गाथामे आचार्यने बताया है कि आकाश एक अखंड अनंत व्यापक है उसीके दो भाग कहे जाते है । जितने भागमे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य है उसको लोकाकाश कहते है, शेषको अलोकाकाश कहते है। जीव और पुद्गल इस लोक में सर्व जगह भरे हैं । जीव अनन्तानत है । यद्यपि एक जीव लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है तथापि केवल समुदघात के सिवाय कभी लोकभरमे व्यापता नहीं है । कषाय, वेदना, वैक्रियिक, तैजस, आहारक, मारणातिक समुदघातो मे भी शरीरसे बाहर फैलकर आत्माके प्रदेश जाने है और कुछ देर बाद शरीर प्रमाण हो जाते है तथापि इन सात समुद्रवात के सिवाय संसारी सब आत्माए अपने नाम कर्मके उदयसे प्राप्त शरोरके आकार प्रमाण आकार रखते हैं । आत्माके प्रदेशोंमें सकोच विस्तार शक्ति है, जो शक्ति नामकर्मके निमित्तसे परिणमन करनी हुई जीवके प्रदेशको सकोचित व विस्तारित कर देती है। लोक प्रमाण से अधिक एक प्रदेश भी विस्तार नही हो सक्ता है। मुक्त जीव अंतिम शरीरसे कुछ कम आकारमे रहते है ।
संसारी जीवोके शरीर सूक्ष्म और वादर दो प्रकारके है । सूक्ष्म शरीरधारी प्राणी तथा वादर शरीरधारी प्राणी साधारण वनस्पति अर्थात् निगोद राशि ऐसी है कि जिसके घनागुलके असंख्यातवें भाग शरीरमे अनन्त जीव परस्पर अवगाह देकर ठहर सक्ते हैं । वे एक साथ जन्मते, श्वास लेते, आहार करते