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________________ १९० ] श्रीप्रवचनसारटीका । तथा मरण करते हैं। इनके सिवाय सूक्ष्म पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु कायिक जीव भी लोकभरमे व्याप्त हैं । सूक्ष्म जीव किसीको रोकते नही न किसीसे रोके जाते हैं, वे अग्निमे जलने नही तथा किसीसे मारे नही जाते हैं । बादर शरीरधारी एकेन्द्री पाँच प्रकार के, इन्द्री, तेहन्द्री, चौइन्द्री तथा पंचेन्द्रिय जीव भी लोक में यथासंभव सर्वत्र पाए जाते है ये चादर जीव आधार में पैदा होते हैं तथा यथायोग्य परस्पर रुकते और रोकते भी है और अन्यो द्वारा मरण भी प्राप्त करते हैं । इनमेसे भी नाडी में ही द्वेन्द्रियादि त्रस जीव हैं, त्रस नाड़ीके बाहर त्रस एक भी नही जन्मता है । स्थावर एकेंद्रिय जीव लोकमें सर्व जगह हैं । एक एक जीवके साथ अनंत पुद्गल वर्गणाए हैं इससे जीवोकी अपेक्षा पुल अनन्त गुणे है तथा जीवोके प्रदेशोंके बाहर अनन्त पुद्गल वर्गणाए हैं जिनमें बहुतसी सूक्ष्म है जो एक दूसरेको अवगाह देदेती है । स्निग्ध रूक्ष गुणोके कारण पुद्गल परस्पर मिलकर अनेक जातिके सूक्ष्म और बादर स्कध बना लेते है। ये पुदुल भी लोक भरमें जीवोकी तरह भौजूद है कोई स्थान लोकाकाशका ऐमा नहीं है कि जहां जीव और पुद्गल न हों। संसारी सर्व जीव और पुल क्रियावान रहते है अर्थात् हलन चलन शक्तिको रखते हुए गमन करते हैं और स्थिति करते हैं । इनके अवगाह देनेमे जैसे -लोकाकाश निमित्त कारण है वैसे इनके गमनमे धर्मद्रव्य और स्थितिमैं अधर्मद्रव्य उदासीन निमित्त कारण है। काद्रव्य भी जीव और पुद्गलोंकी अपेक्षासे लोकभरमे है । इनकी संख्या असख्यात कालाणु है । ये कालाणु सर्व द्रव्योंके नए पुराने होने "
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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