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द्वितीय खंड।
[११ रूप परिणमनमें उदासीन निमित्त कारण है । इन कालाणुओंकी ही समय समय जो परिणति होती है उससे जो समय नामका व्यवहारकालरूप पर्याय प्रगट होती है तो पुद्गलके निमित्तसे होता है। जब एक पुद्गल एक कालाणुको उलधकर निकटवर्ती कालाणुपर नाता है उतनी देरमें जो कुछ समय लगा उसीको कालद्रन्यकी समय पर्याय कहते है । जब एक जीव किसी क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गया या एक पुगल किसी क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें गया तब उसके गमनमें मो घंटा, दो घंटा, चार घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास आदि काल लगा उस सबको, व्यवहारकाल कहते है। ये सव व्यवहारकालके भेट समय नामा सूक्ष्मकालके समय समय वीतते हुए समयोंका समुदाय है । इस तरह इस लोकमें जीव पुद्गलोकी मुख्यतासे उपकारी धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और आकाश द्रव्य है । इन छहोंके समुदायको लोक कहते हैं ।
वृत्तिकारने बताया है कि यद्यपि सिद्ध भगवान निश्चयसे अपने ही स्वभावमे तथा अपने ही प्रदेशोंमे तिष्ठते हैं तथापि व्यवहारसे वे सिद्धगिलाके ऊपर सिद्धक्षेत्रमे तनुवातवलयके भीतर लोकाय तिष्ठते हैं। इसी तरह सर्व ही द्रव्य निश्चयसे अपने अपने स्वभावमे अपनेर प्रदेशोंमें ठहरते है तथापि व्यवहारनयमे लोकाकाशमे ठहरते हैं ऐसा कहा जाता है क्योकि आकाश उन सबका आधार अनादिकालसे उदासीन रूपसे मौजूद है। लोकाकाशके सर्वसे छोटे. प्रदेश नामके भागमे जिसको एक अविभागी पुद्गलका परमाणु रोकता है इतनी शक्ति है कि अनंत परमाणु उसमें स्थान पानावें । मात्र स्थूल पुगल स्कंध, स्थूल तथा स्थूल स्थूलको और स्थूल स्यूल पुद्गल स्कंध, स्थूल