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श्रीप्रवचनसारटीका ।
लोकालोकयर्नभ धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः । शेषो प्रतीच्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः गेषौ ॥ ४६ ॥
अन्वयरहित सामान्यार्थ - (णमो) आकाश द्रव्य (लोगोलोगेसु) लोक और अलोकमे है ( सेसे पहुच ) शेष जीव पुगलको आश्रय करके (लोगो धमाधम्मेहि आददो) लोक धर्म और अधर्म द्रव्यसे व्याप्त है तथा (कालो) काल है । (पुण सेसा जीवा पुग्गला) और वे दो शेष द्रव्य जीव और पुद्गल हैं ।
विशेषार्थ :- लोकाकाश और अलोकाकाश दोनोका आधार एक आकाश द्रव्य है इनमेसे जीव पुगलोंकी अपेक्षासे धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय हैं जिनसे यह लोकाकाश व्याप्त है । अर्थात् इस लोकाकाशमे जीव और पुद्गल भरे हैं उन्ही को गति और स्थतिको कारण रूप ये धर्म अधर्म भी लोकमे है । काल भी इन जीव - पुलोंकी अपेक्षा करके लोकमे है क्योकि जीव पुगलकी नई - पुराणी अवस्थाके होनेसे काल द्रव्यकी समय घड़ी आदि पर्याय "प्रगट होती हैं । तथा जीव और पुदल तो इस लोकमें हैं ही । यहां यह भाव है कि जैसे सिद्ध भगवान यद्यपि लोकाकाश प्रमाण शुद्ध असंख्यात प्रदेशोंमें है जो प्रदेश केवलज्ञान आदि - गुणों के आधारभूत हैं तथा अपने २ स्वभावमे ठहरते हैं तथापि, व्यवहार नयसे मोक्षगिलामे ठहरते है ऐसे कहे जाते हैं तैसे सर्व पदार्थ यद्यपि निश्चयसे अपने अपने स्वरूपमे ठहरते हैं तथापि व्यवहार नयसे लोकाकाशमे ठहरते है। यहां यद्यपि अनन्त जीव द्रव्योसे अनन्त गुणे पुद्गल हैं तथापि एक दीपके प्रकाशमें जैसे - बहुत से दीपकों के प्रकाश समाजाते हैं तैसे विशेष अवगाहनाकी