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________________ द्वितीय खंड | [ ३७ NY 109,09 । न यह यह एक एक ब्रह्मखरूप ही नहीं है जैसा वेदान्तका कथन है एक जड रूप ही है जैसा चार्वाकका कथन है । न ब्रह्म व एक जडरूप है किन्तु यह जगत् अनन्तानंत जीव, अनन्तानन्त पुल, एक धर्म, एक अधर्म, एक आकाश, असंयात फालाणुरूप होकर भी इनकी अनेक अवस्था व स्वरूप नाना प्रकारका विचित्र है । इस तत्त्वको जाननेका तात्पर्य यह है कि हम अपने आत्माको सदा ही रहनेवाला सत् रूप जान तथा उसकी जो वर्तमान अवस्था रागद्वेप मोहरूप व अज्ञान रूप हो रही है हम अवस्थाको दूर करके इसको मिद्धकी अवस्थामें पहुचा देवें जिससे यह सदा ही निजानदका पान करे तथा इसी हेतुसे हमें निज आत्माका स्वरूप निश्रयसे शुद्ध जातादृष्टा ध्यानमेंकर उमहीका विचार तथा अनुभव करना चाहिये ॥ ६ ॥ उत्थानिका- आगे यह प्रगट करने है कि जैसे द्रव्य स्वभावसे सिद्ध है वैसे सत्ता भी स्वभाव सिद्ध है द्रव्य द सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादो । सिद्ध तथ आगमटो, गेच्छदि जो मो हि परसमश्र ॥ ७ ॥ मानसिद्ध मंदिते विनात्तवत समाख्यातवन्तः । सिद्ध तथा आगमतो नेच्छनिय म हि परममय || ७ || अन्य गतिविशेषार्थ - ( दव्य ) द्रव्य ( सहावसिद्ध ) स्वभावसे सिद्ध है (सदिति) सत् भी प्रभाव सिद्ध है ऐसा (जिणा) जिनेन्द्रोने ( तच्चा ) तत्त्वसे (समखादो) कहा है (तध) तैसे ही (आगमदो) आगमसे (सिंह) सिद्ध है (जो ) जो कोई (णेच्छटि) नहीं मानता है ( सो हि परसमओ) वही प्रगटरूपसे परसमयरूप है ।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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