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श्रीप्रवचनसारटोका |
इस तरह ज्ञानदर्शन अधिकार की समाप्ति करते हुए चौथे स्थलमें दो गाथाएं पूर्ण हुई |
उत्थानिका- इस तरह निज शुद्धात्माकी भावनारूप मोक्ष - मार्गके द्वारा जिन्होंने सिद्धि पाई है और जो उस मोक्षमार्गके आराधनेवाले हैं उन सबको इस दर्शन अधिकारकी समाप्ति में मंगलके लिये अथवा ग्रन्थकी अपेक्षा मध्यमें मंगलके लिये उस ही पदकी इच्छा करते हुए आचार्य नमस्कार करते हैं
दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं । अव्वावाधराणं णमो णमो सिद्धाणं ॥ ११३ ॥
सम्यग्दर्शनसंशुद्धेभ्यः सम्यग्ज्ञानोपयोगयुक्तेभ्यः । अव्याबाधरवेभ्यो नमो नमो सिद्धसाधुभ्यः ॥ ११३ ॥
अन्वय सहित सामान्यार्थः- (दसणसंसुद्धाणं) सम्यग्दर्शनसे शुद्ध ( सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताण ) व सम्यज्ञानमई उपयोगसे युक्त तथा ( अव्वाबाधरदाणं ) अव्यात्राध सुखमें लीन ( सिद्धसाहूणं ) सिद्धोंको और साधुओंको (णमो णमो ) वारवार नमस्कार हो ।
विशेषार्थ - जो तीन मूढता आदि पच्चीस दोषोंसे रहित शुद्ध सम्यग्दृष्टी हैं, व संशयादि दोषोंसे रहित सम्यग्ज्ञानभई उपयोग धारी हैं अथवा सम्यग्ज्ञान और निर्विकल्प समाधिमे वर्तनेवाले वीतराग चारित्र सहित हैं तथा सम्यग्ज्ञान आदिकी भावनासे उत्पन्न अव्या बाघ तथा अनन्त सुखमें लीन हैं ऐसे जो सिद्ध हैं अर्थात् अपने आत्माकी प्राप्ति करनेवाले अईत और सिद्ध हैं तथा जो साधु हैं अर्थात् मोक्षके साधक आचार्य, उपाध्याय तथा साधु हैं उन सबको