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श्रीप्रवचनसारंटोका ।
विशेषार्थ - ध्याता विचारता है कि मै अपने आत्माको सर्व तरह उपादेय समझकर इस तरह अनुभव करता हूं कि वह सहज परमानंदमई एक लक्षणको रखनेवाला 'आत्मा रागादि सर्व विभावोंसे रहित शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावरूप रहनेसे अविनाशी है, अखंड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है, मूर्तीक, विनाशीक, अनेक इन्द्रियोंसे रहित होनेके कारण अमूर्त, अविनाशी एक अतींद्रिय स्वभाव है । मोक्षरूप महापुरुषार्थका साधक होनेसे महान पदार्थ है, अति चंचल मन वचनकायके व्यापारोंसे रहित होनेमे अपने स्वरूपमें निश्चल है तथा स्वाधीनपने स्वद्रव्यपनेसे स्वालम्बनरूप भरा हुआ होनेपर भी सर्व पराधीन परद्रव्यके आलम्बनसे रहित होनेके कारण निरालम्ब है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने ध्यान करनेवालेके लिये यह शिक्षा दी है कि वह अपने आत्माको इन विशेषणोंके साथ विचार करे कि वह आत्मा सर्व द्रव्य कर्म, नोकर्म, भाव कर्मसे रहित शुद्ध है, खाधीन है, अपने शुद्ध स्वभावमें स्थिर है, आदि अन्त रहित नित्य है, इंद्रिय अगोचर है, शुद्ध ज्ञाता दृष्टा स्वभावमई है तथा जगत सर्व पदार्थोंमे उत्तम है अथवा मोक्षका साधक होने से यही महान पदार्थ है । इस तरह शुद्ध सिद्ध सम वारवार ध्यान करनेसे उपयोग शुद्ध भाव में जमता जाता है-अशुद्धतासे हटता जाता है। इसी उपायसे वीतरागता बढ़ती जाती है व रागडेपमई परिणति मिटती जाती है, जिससे नवीन धर्मोका सबर होता है व प्राचीन कर्मोकी निर्जरा होती है । यही आत्मध्यान साक्षात् मोक्षका उपाय है। श्री तत्वसारमें कहा है
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