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________________ द्वितीय खंड। वस्थामें रहता है वैसा ही आत्मा इस देहमें विराजित परमब्रह्म स्वरूप है ऐसा अनुभव करना चाहिये | जो कोई नोकर्मसे रहित, केवलज्ञानादि गुणोसे पुर्ण है सो ही मैं शुद्ध सिद्ध, अविनाशी, एक तथा परालम्ब रहित हू । मै सिद्ध हूं, शुद्ध हूं, अनंतज्ञानादि गुणोसे भरा हुआ हूं, शरीर प्रमाण हूं, नित्य हूं, लोक प्रमाण असख्यात प्रदेशी हू तथा अमूर्तीक हूं। इस तरह विचारते हुए मनके विकल्प रुक जायगे, इद्रियोके विषय व्यापार वद होजावेंगे और योगीके भीतर इस आत्मध्यानसे परम ब्रह्मस्वरूप परमात्मा प्रगट होजावेगा । ऐसा जानकर निन शुद्धात्माका ही मनन करना चाहिये इसीसे शुद्धात्मलाभ होगा ॥ १०३ ॥ उत्थानिका-आगे कहते है कि शुद्ध आत्मा ध्रुव है इसलिये मै शुद्ध आत्माकी ही भावना करता हू ऐसा ज्ञानी विचारता है। एवं णाणप्पाणं दसणभूदं अदिदियमहत्थं । धुवमचलमणालंचं मण्णेऽहं अप्पगं सुद्ध ॥ १०४ ॥ एव नानात्मान दशनभूतमतं न्द्रियमहार्थम् । ब्रुवमचलमनालन म येऽहमात्मक शुद्धम् ॥ १०४ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ.- ( एवं ) इस तरह (गाणप्पाणं) ज्ञान स्वरूप ( दसणभूद ) दर्शनस्वरूप (अदिदियम् ) इन्द्रियोके अगोचर अतीन्द्रियस्वरूप (धुवम् ) अविनाशी (अचलम् ) अपने स्वरूपमे निश्चल (अणालव) परालम्ब रहित (सुई) शुद्ध (महत्थं) महान पदार्थ ऐसे (अप्पगं) अपने आत्माको (अह मण्णे) मै अनुभव करता हू। २३
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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