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________________ द्वितीय खंड ससहाय वेदतो णिश्चलचित्तो विमुकपरभात्रो । सो जीवो णायव्वो दसगणाण चरेत च ॥ ५६ ॥ [ ३५५ जो अप्पा त गाणं ज णाण त च दसण चरणं । सा सुद्धचेयणावि य णिच्छयणयमस्सिए जीवे ॥ ५७ ॥ भावार्थ - जो अपने स्वभावको अनुभव करता हुआ परभावोंसें मुक्त होकर निचलचित्त होजाता है वही जीव सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप जानना चाहिये। जो जीव शुद्ध निश्चयनयका आश्रय करता है इसके अनुभवमें जो आत्मा है वही ज्ञान है, जो ज्ञान है वही दर्शन है, वही चारित्र है, वही शुद्ध ज्ञान चेतना है ऐसा एकीभाव होजाता है । यही स्वानुभव भावमोक्षका साधक है । ऐसा जानकर निरतर इस प्रकार आत्मध्यानका पुरुषार्थ करना आवश्यक है यही सार है । उत्थानिका - आगे कहते है कि ये शरीरादि आत्मा से भिन्न विनाशी है इसलिये इनकी चिन्ता न करनी चाहिये । देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाऽध समित्तजणा । जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥ १०५ ॥ देहा वा द्रविणानि वा सुखदु खे वाथ शत्रुमित्रजनाः । जीवस्य न सति ब्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ॥ १०५ ॥ अन्वय सहित सामान्याथः - (जीनस) जीवके ( देहा) शरीर ( वा दविणा) या द्रव्य ( वा सुहदुक्खा ) या सासारिक सुखदुख (बाघ समित्तजणा) तथा शत्रु मित्र आदि मनुष्य ( धुवा ण सति) अविनाशी नहीं हैं । ( उवओगप्पगो अप्पा ) केवल उपयोगमई आत्मा (धुवो ) है |
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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