________________
३५६ ]
श्रीप्रवचनसारटोका।
विशेषार्थ-सर्व प्रकारसे पवित्र शरीररहित परमात्मासे विलक्षण औदारिक आदि पांच प्रकारके शरीर तथा पंचेद्रियोंके भोग उपभोगके साधक धन आदिक परद्रव्य इस जीवके लिये ध्रुव नहीं हैं किन्तु ये अनित्य हैं, छूट जानेवाले हैं। केवल शरीरादि ही अनित्य नहीं हैं किन्तु विकाररहित परमानन्दमई एक लक्षणधारी अपने ही आत्मासे उत्पन्न सुखामृतसे विलक्षण सांसारिक सुख तथा दुःख तथा शत्रु मित्र आदि भावसे रहित आत्मासे भिन्न शत्रु मित्र आदि जनसमुदाय ये सब भी अनित्य हैं। जब ये सब अध्रुव है तव ध्रुव क्या है ? इसके उत्तरमें कहते हैं कि तीन लोकके उदरमें वर्तमान भूत भविष्य वर्तमान तीन कालके सर्व द्रव्य गुण पर्यायोको एक साथ जानने में समर्थ केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमई अपना आत्मा ही शाश्वत अविनाशी है। ऐसा अपनेसे भिन्न सर्व सम्बन्धको अध्रुव जान करके ध्रुव स्वभावधारी अपने ही आत्मामे निरन्तर भावना करनी योग्य है यह तात्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामे आचार्यने मोहकी गांठ काटनेके लिये यह समझाया है कि जिन २ वस्तुओंको हे आत्मन् ! तू अपनी मानकर उनसे प्रीति करता है व उनकेलिये शोक करता है वे सब पदार्थ तेरे साथ सदा रहनेवाले नहीं है। उन सबकी अवस्था बदलती रहती है-उनका सम्बन्ध तेरे साथ धूप छायाके समान होता है
और मिटता है । ये शरीर पुद्गलके परमाणुओंसे बनते हैं व उनके विछड़नेपर बिगड जाते है-ये सब स्थिर रहनेवाले नहीं हैं। इसी तरह रुपया, पैसा, मकान, जमीन, वस्त्र, बासन आदि पांचों इंद्रियोंके साधक पदार्थ भी एक दशामें रहनेवाले नही हैं या तो ये