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द्विताय खंड।
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स्वयं नष्ट हो जायगे वा हम शरीर छोड़ते हुए इनको छोड जायगे। कोके उदयसे जो दुःख या सुख होते हैं ये भी एकसे नहीं रहतेहोते हैं व छुटते हैं। जिनको हम अपना शत्रु समझकर द्वेष करते हैं व जिनको अपना मित्र समझकर प्रेम करते हैं वे शत्रु व मित्र भी हमसे छूटनेवाले हैं। हमारा अपना यदि कोई सदा साथ देनेवाला है तो एक अपना ही ज्ञानदर्शनोपयोगधारी आत्मा ही है। इसलिये निज आत्माके सिवाय सर्व सम्बन्धको क्षणिक मानकर हमें परम ध्रुव स्वभावधारी निन आत्माहीका मनन करना चाहिये। स्वामी अमितिगतिने बडे सामायिकपाठमे कहा है
कातासद्मशरीरमप्रभृतयो ये सर्वथाऽग्यात्मनो, भिना. कर्मभवा. समीरणचला मावा बहिमा वनः । तः सम्मतिमिहात्मनो गतधियो जानति ये शर्मदा, त्व सकसवसेन विदधते नाकीशल्क्ष्मी स्फुः ॥ ८५ ।।
भावार्थ -जो कोई निर्बुद्धि स्त्री, मकान, पुत्र, धन आदि वाहरी पदार्थोके सम्बध होनेपर जो पदार्थ सर्वथा अपनी आत्मासे भिन्न है, पवनके समान अथिर है तथा कर्मोके उदयसे होनेवाले हैं, अपने आत्माकी सुखदाई सम्पत्ति जानते है वे मानो प्रगटपने अपने सकल्पसे स्वर्गकी लक्ष्मीको धारण कररहे है । मतलब यह है कि जसे मनमे यह सकल्प करना कि भै स्वर्गको सम्पदाका वनी हूँ, वृथा है, झूठा है। तेसे ही अपने से भिन्न स्त्री पुत्र धनादि सामग्रीक चल कर्मअनिता वन्यको जाना मानना ला है, सूखता है । इससे सर्व प्रकारसे उपाय निम शुद्ध रूपमे ही प्रेम रखना चाहिये और उसके सिवाय सर्व भावोसे वैराग्य मनना चाहिये ॥ १०॥