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द्वितीय खंड |
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संज्ञादि रूपसे नानापना कहा गया है तैसे ही सर्व द्रव्योका अपने अपने खरूप सत्ता गुणके साथ नानापना जानना चाहिये ऐसा अर्थ है ।
भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने भेदके दो भेद बताए हैंएक पृथकत्त्व, दूसरा अन्यत्त्व ।
जहां एक द्रव्यके प्रदेश दूसरे द्रव्यके प्रदेशोंसे भिन्न होते हैं वहां पृथकत्त्व नामका भेद है। जहां प्रदेश एक होनेपर भी गुण व गुणी या पर्याय व पर्यायवान में संज्ञा लक्षण प्रयोजनादिकी अपेक्षा भेद होता है वहां पर अन्यत्त्व नामका भेद होता है। जीव अनंतानंत है उन सबमें पृथकत्त्व है । हरएक जीव अपने २ प्रदेशको भिन्न रखता हुआ एक दूसरेसे पृथक् है। पुद्गलके परमाणु या बंध रूप स्कंध एक दूसरेसे प्रदेशों की अपेक्षा भिन्न भिन्न हैं इससे पृथक हैं। कालाणु द्रव्य असंख्यात है इनमे भी परस्पर प्रदेश भेद है इससे पृथक २ हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक एक ही अखण्ड द्रव्य हैं। अनंतानंतजीव, अनतानत पुद्गल, असख्यात कालाणु, धर्म, अधर्म, आकाश ये सच परस्पर पृथक्त्व नामके भेदको रखते हैं। ये सब सदा जुदे २ हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि छः द्रव्य कभी एक द्रव्य न थे, न है, न होवेंगे। इन छ. में भी जो जो द्रव्य अनेक हैं वे भी अपने बहुपको कभी नही छोडेंगे । द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ थ नामका भेद है । परन्तु जिन गुणोंको द्रव्य आश्रय देता है उनके, साथ द्रव्यका कभी थकत्त्व न था न है न होगा । गुणोके अमिट समुदायको द्रव्य कहते हैं- जो द्रव्यके आश्रय हो और अपने में
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