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________________ ७०] श्रीप्रवचनसारटीका। है ऐसी (वीरस्स हि सासणं) श्री महावीर भगवानकी आज्ञा है। (अतव्भावो) स्वरूपकी एकताका न होना (अण्णत्तम्) अन्यत्व है। (तब्भवं ण) ये सत्ता और द्रव्य एक स्वरूप नहीं हैं (कधमेगं भवदि) तब किस तरह दोनों एक हो सक्ते हैं। विशेषार्थ-जहां प्रदेशोंकी अपेक्षा एक दूसरेमें अत्यन्त जुदायगी हो अर्थात् प्रदेश भिन्न भिन्न हो जैसे दन्ड और दन्डीमें भिन्नता है । इसको पृथकत्वनामका भेद कहते है । इस तरहका पृथकत्त्व या जुदापना शुद्ध आत्मद्रव्यका शुद्ध सत्ता गुणके साथ नही सिद्ध होता है क्योकि इनके परस्पर प्रदेश भिन्न २ नहीं है। जो द्रव्यके प्रदेश हैं वे ही सत्ताके प्रदेश हैं । जैसे शुक्ल वस्त्र और शुक्ल गुणका स्वरूप भेद है परन्तु प्रदेश भेद नहीं है ऐसे ही गुणी और गुणके प्रदेश भिन्न २ नहीं होते। ऐसी श्रीवीर नामके अंतिम तीर्थकर परम देवकी आज्ञा है । जहां संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिसे परस्पर स्वरूपकी एकता नहीं है वहां अन्यत्व नामका भेद है ऐसा अन्यत्व या भिन्नपना मुक्तात्मा द्रव्य और उसके शुद्ध सत्ता गुणमे है । यदि कोई कहे कि जैसे सत्ता और द्रव्यमें प्रदेशोकी अपेक्षा भेद है वैसे संज्ञादि लक्षण रूपसे भी अभेद हो ऐसा माननेसे क्या दोष होगा? इसका समाधान करते हैं कि ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है। वह मुक्तात्मा द्रव्य शुद्ध अपने सत्ता गुणके साथ प्रदेशोकी अपेक्षा अभेद होते हुए भी सज्ञा आदिके द्वारा सत्ता और द्रव्य तन्मई नही है । तन्मय होना ही निश्चयसे एकताका लक्षण है कितु संज्ञादि रूपसे एकताका अभाव है। सत्ता और द्रव्यमे नानापना है। जैसे यहां मुक्तात्मा द्रव्यमें प्रदेशोके अभेद होने पर भी
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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