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________________ पारवर्तन धारण करके अ २४२] श्रीप्रवचनसारटोका। समय विताना पडता है। इसी तरह नरक गतिमें अनेक प्रकारके भयावने असुन्दर छोटेवडे शरीरोंको धारकर सात नरकोंमें कष्ट उठाना पडता है । आचार्य कहते हैं कि संसारमें अनेक शरीरोंमें जीवका आकार संकोच विस्तारसे अनेक प्रकार हो, जाता है व शरीरकी अनेक प्रकारकी अच्छी बुरी अवस्थाएं होती हैं इनमें कारण नामकर्मका विचित्र प्रकारका उदय है। अन्य कर्मोके उदयके वशसे आत्मीक गुणोंकी विकारता रहती है। सर्व संसारीक व्यंजन पयायें कर्मद्वारा जनित हैं-मेरे शुद्ध ज्ञानानन्दमई आत्मीक स्वभावसे भिन्न हैं । यद्यपि मेरी आत्माने इस पंच परिवर्तनरूप संसारमें अनेक अवस्थाएं धारण करके अनेक भेष बनाए हैं, परन्तु मेरा निश्चित असंख्यात प्रदेशमई आकार व मेरे निश्चित स्वाभाविक गुण तथा स्वभाव सब मेरेमें वैसे ही रहे-उनकी अवस्थाएं कर्मके निमित्तसे अनेक विकाररूप हुई तथापि उनका स्वभाव कभी मिटा नहीं । मैं जब कर्मके आवरणके भावको चित्तसे हटाकर अपनेको देखता है तो अपनेको सिद्ध भगवानरूप ही शुद्ध अनन्त शक्तियोका धारी ही देखता हूं और इसी लिये निनानन्दरूपी अमृतके पानके लिये मै इसी अपने स्वभावका अनुभव करता हुआ स्वाद लेता हू । यही भावना कार्यकारी है। महाराज कुन्दकुन्दाचार्यजीने समयसार 'मि भी शरीरोकी अवस्थाओो नाम कर्मकृत बताया है एक ग्णि तिणि य चत्तारि य पञ्च इन्दिया जीवा। वादरपतिदरा पयडीओ णामकस्मस्स ॥ ७० ॥ एदेहि य णिवत्ता जीवडाणा दु करणभूदाहिं । निश्चित
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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