SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खंडा। [२४३ पयडीहिं पोग्गलमईहिं ताहिं कह भण्णदे जोवो ॥ ७ ॥ पर्जत्तापजत्ता जे सुहमा वादरा य जे चेव।। देहस्स जीवसपणा सुत्त ववहारदो उत्ता ॥ २ ॥ भावार्थ-एकेंद्रिय, वेंद्रिय, तेंद्रिय, चौंद्रिय, पंचेंद्रिय जाति, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब नामकर्मकी प्रकृतिये हैं। जो ये १४ जीव समासरूप जीवीके भेद अर्थात् एकेंद्रिय सूक्ष्म, एकेद्रिय वादर, ढेंद्रिय, तेंद्रिय, चौंद्रिय, पचेंद्रिय असैनी, पचेंद्रिय सैनी ये सात पर्याप्त व सात अपर्याप्त पैदा हुए हैं सो सब पुद्गलमई नामकर्मकी प्रतियोके कारणसे पुद्गलरूप ही बने हुए हैं । इनको निश्चयसे जीव कैसे कहा जा सकता है ? सिद्धांतमें जो पर्याप्त अप र्याप्त सूक्ष्म, वादर जीवोंके नाम कहे हैं सो शरीरको ही जीवकी संज्ञा व्यवहारनयसे कही गई है । निश्चयसे जीव इन शरीरादिसे रहित शुद्ध टंकोत्कीर्ण ज्ञाता दृष्टा स्वभावका धरनेवाला है। यही मेरा खभाव है। ऐसी भावना करके अपने आत्माको सर्व नरनारक आदि पर्यायोसे भिन्न एकाकाररूप अनुभव करना चाहिये, यह तात्पर्य है। उत्थानिका-आगे यह प्रकाश करते हैं कि जो कोई अपने स्वरूपमे अस्तित्त्वको रखनेवाले परमात्मद्रव्यको जानता है वह परद्रव्यमें मोहको नही करता है तं सब्भावणिवद्ध दवसहावं तिहा समनाई। जाणदि जो सवियप्प, ण मुहदि सो अण्णदविम्हि ॥६॥ त सद्भावनियद्ध द्रव्यहरभाव निध समाख्यातम् । जानाति य. सवित ल्प न मुति सोऽन्यद्रव्ये ॥ ६५ ॥ अन्वय महित सामागाथ-(जो) नो ज्ञानी (सम्भावणिनई) अपने स्वभावमें तन्मय (तिहा समस्खाद) व तीन प्रकार कहे हुए
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy