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श्रीप्रवचनसारटोका ।
( दव्वसहावं ) द्रव्यके स्वभावको (सवियपं) भेद सहित ( जाणदि) जाता है (सो) वह (अण्णदवियम्हि ) अन्य द्रव्यमें (ण मुहदि) मोहित नही होता है ।
विशेषार्थ - जो कोई परमात्म द्रव्यके स्वभावको ऐसा जानता है कि यह अपने स्वरूप सत्तामें तन्मय रहता है तथा इसका स्वभाव तीन प्रकार कहा गया है अर्थात् केवलज्ञान आदि गुण हैं, सिद्धत्त्व आदि विशुद्ध पर्यायें हैं तथा इन दोनोंका आधाररूप परमात्म द्रव्य है तैसे ही शुद्ध पर्यायोंमें उत्पाद व्यय तथा धौव्य रूप है ऐसे स्वरूप अस्तित्त्व के साथ तीन रूप है तथा ज्ञान दर्शन, भेदसहित है इनमें साकार ज्ञान व निराकार दर्शन है। वह भेदज्ञानी विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव आत्मतत्त्वको जानता हुआ देह च रागादि परद्रव्यों में मोह नही करता है ।
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भावार्थ - इस गाथाका भाव यह है कि द्रव्य छः है इन छहों द्रव्योंकी स्वरूप सत्ताको 'कि इनका अस्तित्त्व सदासे है व सदा रहेगा, व ये गुण पर्याय मय हैं व उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप हैं इस तरह तीन प्रकार जैसा जिनेन्द्र भगवानने कहा है पैसा उनको भेद प्रभेद सहित अच्छी तरह जानता है वही ज्ञानी है । उस ज्ञानीको यह जगत यद्यपि मिश्रित अनेक अवस्थामय है तथापि अलग अलग प्रगट होता है। जितनी आत्माएं हैं सब शुद्ध ज्ञानानंदमय झलकती हैं, जितने अनात्म द्रव्य पुद्गलादि हैं वे सब अचेतन प्रगट होते हैं । उसको अपने आत्माकी सत्ता भी अन्य आत्माओं से जुदी भासती है। वह अपनी आत्माको परम
वीतराग ज्ञानदर्शन सुख वीर्यका समूहरूप एक अखंड अपने ही