SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खंड। । [२४५ शरीरमें विराजित अनुभव करता है ऐसे अनुभवी जीवका स्वभावसे ही मोह अपने ही निज द्रव्यको छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्यमें नहीं रहता है-वह जगतकी अवस्थाओको ज्ञातादृष्टाके समान देखता जानता है-उनके किसी पर्यायके होनेमे हर्ष व किसी पर्यायके विगड़नेमें द्वेष नहीं करता है, वीतरागी रहता हुआ ज्ञानी बन्धमें नहीं पड़ता है। वास्तवमे मोहकी जड़ काटनेवाला पदार्थोका सम्यग्श्रद्धान और सम्यग्ज्ञान है। इनके होनेपर मोहकी गांठ टूट जाती है और कुछ काल पीछे ही मोहका सर्वथा क्षय हो जाता है, और आत्मा केवलज्ञानी हो जाता है। इस तरह जिस तरह वने यथार्थज्ञान प्राप्त करना चाहिये । ज्ञानलोचन रत्रोत्रमे श्री वादिराज महाराज कहते हैं: अनाविद्यामयमूछिताग, कामोदरकोघहुताशतप्तम् । स्याद्वादपीयूषमहोपधेन, त्रायस्व मा मोहमहाहिदष्टम् ॥३१॥ । भावार्थ-मै अनादिकालके अज्ञानमई रोगसे मूर्छित हूं, काम क्रोधकी अग्निसे जल रहा हूं, मोह महा सर्पसे डसा गया हूं, मुझे स्याद्वादरूपी अमृतमई महा औषधि पिलाकर मेरी रक्षा कर । श्री आत्मानुशासनमे गुणभद्राचार्य कहते हैंमुहुः प्रसार्य सद्ज्ञान पश्यन् भावान् यथास्थितान् । प्रीत्यमोती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ ॥ . भावार्थ-वारवार सच्चे ज्ञानका विस्तार करके व पदार्थोके यथार्थ स्वभावोको देखता हुमा एक अध्यात्मज्ञानी मुनि रागद्वेष दूरकर निज आत्माका ध्यान करे। ___इससे यह सिद्ध है कि ज्ञानी जीव ही मोहका क्षय कर सक्ता है ॥६५॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy