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. द्वितीय खंड।
[२:१ व औदारिकादि शरीर होता है उसकी अपेक्षा अन्य भवमें उससे 'भिन्न ही संस्थान शरीर आदि होते हैं। इस तरह हरएक नए नए भवमे कर्मकत भिन्नता होती है, परन्तु शुद्ध बुद्ध एक परमात्मा द्रव्य अपने खरूपको छोडकर भिन्न नहीं हो जाता है। जैसे अग्नि तृण, काष्ठ, पत्र आदिके आकारसे भिन्नर आकारवाली हो जाती है तो भी अग्निपनेके स्वभावको अग्नि नही छोड़ देती है। क्योकि ये नरनारकादि पर्यायें कौके उदयसे होती है इससे ये शुद्धात्माका स्वभाव नहीं है। -
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने फिर इसी बातको स्पष्ट किया है कि ये संसारी जीव कर्मोंसे बद्ध हैं इसीसे उनको चौरगतियों के अनेक प्रकारके शरीरोको धारकर अनेक रूप होना पड़ता है। नामकर्मके उदयसे एकेंद्रिय पर्यायमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पतिरूप देन्द्रियमे लट, केचुआ, कौडी, संख आदि रूप; तीन इन्द्रियमे चीटी, चीटे, खटमल, जू, जोक आदि रूप, चौद्रियमें मक्खी, भ्रमर, तितली, भिड़, पतगा आदि रूप और पंचेंद्रियमें मच्छ, गाय, भैस, कुत्ता, बिल्ली, सिंह, हिरण, सर्प, नकुल, कबूतर, काक, भोर, मैना, तोता आदि अनेक रूप तिर्यंच गतिकी अवस्थाओमें नाना प्रकार शरीरके आकार रंग, हड्डी, मांस आदि प्राप्त करने पड़ते हैं। मनुष्य गतिमें अनेक रंगके, अनेक प्रकारके सुन्दर, असुन्दर, मोटे पतले, रूखे चिकने शरीरोंको धारकर अनेक आर्य व अनार्य देशोंमें जन्म लेकर रहना पड़ता है। देवगतिमे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवोमे वैक्रियिक शरीरकी अनेक जातियोमें जन्म लेकर अनेक प्रकारके छोटे व बडे शरीर पाकर
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