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श्रीप्रवचनसारटीका |
व्यंजन पर्याय कहते हैं । जैसे आकार भिन्न २ होता है वैसे ज्ञान दर्शन वीर्य आदि विशेष गुणोकी प्रगटता भी भिन्न २ प्रकारकी होनाती है । ऐसी अवस्थाएं होती रहती हैं, छूटती रहती हैं। ये सब कर्मके द्वारा उत्पन्न अवस्थाएं नाशवत हैं ऐसा निश्चयकर अपने स्वाभाविक पुद्गलके संयोगसे भिन्न शुद्ध असंख्यात प्रदेशरूप सिद्ध पर्यायको ही ग्रहण करने योग्य जानना चाहिये, नरनार कादि रूपोंको त्यागने योग्य मानना चाहिये ॥ ६३ ॥ उत्थानिका- आगे उन्ही व्यजन पर्यायके भेदोको प्रगट करते
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बताते है
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहि अण्णहा जादा । पजाया जीवाणं उदयादु हि णामकम्मस्स || ६४ ॥ नरनारकतिर्यक्सुराः सस्थाना'दभिरन्यथा ज.ताः । पर्याया जीवानामुदयादि नामकर्मणः ॥ ६४ ॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ - ( णामकम्मस्स उदयादु ) नाम कर्मके उदयसे (हि) निश्चयसे ( जीवाणं ) संसारी जीवोंकी (णरणारयतिरियसुरा ) नर, नारक, तियच और देव (पज्जाया) पर्यीयें (ठाणादीहिं) सस्थान आदिके द्वारा ( अण्णहा ) स्वभाव पर्यायसे भिन्न अन्य २ रूप ( जादा) उत्पन्न होती हैं ।
विशेषाथ - निर्दोष परमात्मा शब्दसे कहने योग्य, नाम गोत्रा - दिसे रहित शुद्ध आत्मा द्रव्यसे भिन्न नाम कर्मके बन्ध, उदय, उदीरणा आदिके वशसे जीवोंकी नर, नारक, तिर्यच तथा देव रूप अवस्थाएं अर्थात् विभाव व्यजन पर्यायें अपने भिन्न २ आकारों से भिन्न उपजती हैं। मनुष्य भवमें जो समचतुरससस्थान