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द्वितीय खंड ! [ २३६ अस्तित्त्व कर निश्चित (अत्थस्स) नीव नामा पदार्थक (हि) निश्चयसे ( अत्यंतरम्मि संभूदो ) पुद्गल द्रव्यके सयोगसे उत्पन्न हुआ (अर्थः) नर नारक आदि विभाव पदार्थ है ' (सो) वही (सठाणादिप्पभेदे हि) संस्थान आदिके भेदोंसे (पंजायो) पर्याय है। " '' विशेषार्थ-चिदानन्दमई एक लक्षणरूप खरूपकी सत्ता स्थिर ज्ञानमई परमात्मा पदार्थरूप शुद्धात्मासे अन्य ज्ञानावरणादि कमौके सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ जो नर नारक आदिका खरूप है वह छः संस्थान व छः संहनन आदिसे रहित परमात्मा द्रव्यसे विलक्षण संस्थान व सहनन आदिके द्वारा भेदरूप विकार रहित शुद्धात्मानुभव लक्षणरूप स्वभाव व्यंजनपर्यायसे भिन्न विभाव व्यंननपर्याय है।
भावार्थ-यहा यह बताया है कि यह जीव प्रवाहरूपसे अनादिकालसे ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे बन्धा चला आरहा हैइस जीवके स्वरूपकी सत्ता जीवमें सदा स्थिर रहती है । जीवके भीतर से ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि गुण है वे जीवमें सदासे हैं व सदा रहेंगे-जीव अपने अनन्त गुणोके साथ एकमेक होकर भी अपने लोकप्रमाण असख्यात प्रदेशोको भी रखता है। वे प्रदेश भी घटते बढ़ते नहीं हैं-ऐमा जीव अपने अखड स्वभावकी सत्ताको रखता हुआ अनादि कर्मबन्धके उदयके आधीन इम ससारमें भ्रमण करता हुआ भिन्नर शरीरोको धारणकरके नर, नारक, तिथंच, मनुष्य नाप पाता है-इन शरीरोके प्रमाण आत्माके प्रदेश सकोचविस्तार प्वभावके कारण होनाते हैं। शरीरके सम्बन्धसे अनेक प्रकार आकारों को धारण करता है। इन आकारोंके परिवर्तनको
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