________________
३६६]
श्रीप्रवचनसारटीका ।
हो प्रकाश या रत्नका, घर घर सन संसार । जासे सब निज आत्मको, पावें रहस विचार ॥ ४६॥ वृद्धि होय या थानकी, जहां अन्य उत्पाद । ईत भीति सब ही टलें, क्लेश होय सब बाद ॥ ४७ ॥ मंगल श्री अरहंत हैं, मंगल सिद्ध महान । नमस्कार मन वच करूं, तन नमाय कर ज्ञान || ४८ ॥ आचारन उवझायवर, सर्व साधु चित लाय। परमयमी निनके रमी, गुणसागर उर ध्याय ॥ ४९ ॥ 'परम भावना यह करूं, सुखी होय संसार । सुखसागरमें रमनकर, निज गुण परखें सार ॥ ५० ॥ तत्त्वज्ञान सुहावना, परमशांति दातार । 'शीतल' जिनका शरण ले, राखू हिय सुखकार ॥ ११ ॥
इति ॥ ता० १-११-२३ ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद,
पानीपत, नि० करनाल (पंजाब)