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________________ द्वितीय खंड। रूप अपने ही आत्माको अपनी प्रसिद्धि, पूजा, लाभादि सर्व मनोरथ जालसे रहित विशुद्ध आत्मा होता हुआ ध्याता है सो ऐसा गुणी जीव शुद्धात्माकी रुचिको रोकनेवाली दर्शनमोहकी खोटी गांठको क्षय कर डालता है । इससे सिद्ध हुआ कि जिनको निज आत्माका लाभ होता है उन्हीकी मोहकी गाठ नाश होजाती है। यही फल है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने दर्शनमोहकी गांठके क्षयका उपाय यह बताया है कि जो कोई शुद्ध निश्चयनयसे अपने ही शुद्ध आत्माको निश्चयकरके कि वह सर्व रागादि परद्रव्योंसे न्यारा है, परद्रव्योंसे रागद्वेप मोह छोड़ उसी निज आत्माका चिन्तवन करता है उसके विशुद्ध परिणामोके प्रतापसे दर्शनमोहकी वर्गणाका आत्मासे वियोग होजाता है और क्षायिक सम्यक्त पैदा होजाता है। मुनि हो या गृहस्थ हो शुद्ध आत्माके अनुभवसे दर्शनमोहका नाश कर सक्ता है । जिसने इस मोहकी गांठको नष्ट कर डाला उसको निन स्वाधीन पदका लाभ अतिशय निकट रह जाता है । आत्मध्यान करनेका फल सम्यग्दृष्टि ज्ञानी होना है। श्री अमृतााशीतिमे श्री योगेन्द्रदेव कहते है-- बहिरबहिरुदारज्योतिरुद्भामदीपः, स्फुरति यदि तवाय नाभिपद्मे स्थिताय । अपसरति तदानीं मोहघोरान्धकार ___चरणकरणदक्षो मेक्षलक्ष्मीदिदृक्षोः ॥ ५४ ॥ भावार्थ- यदि तू चारित्रमे चतुर है व मोक्षलक्ष्मीके देख. नेकी इच्छा रखता है और तेरे नाभिपद्ममे ठहरे हुएके भीतर
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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