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________________ ६६ ] श्रीप्रवचनसारटोका। न भवति यदि सद्व्यममध्रुवं भवति ताय द्रव्यम् । भवति पुनर-यद्वा तस्माद्व्य स्वय सत्ता ॥ १४ ॥ अन्वय सहित मामान्यार्थ-(नदि) यदि (सद्दव्यं) सत्तारूप द्रव्य (ण हवदि) नहीं होवे तो (तं दव्यं असद्धवं कधं वदि ) वह द्रव्य निश्चयसे असत्तारूप होता हुआ किस तरह होसक्ता है (वा पुणो अण्णं हवदि) अथवा फिर वह द्रव्य सत्तासे भिन्न हो जावे, क्योंकि ये दोनो वातें नहीं होसक्ती (तम्हा दव्यं सयं सत्ता) इसलिये द्रव्य स्वय सत्ता स्वरूप है ॥ १४ ॥ विशेपार्थ-यहां वृत्तिकार परमात्म द्रव्यपर घटाकर कहते हैं कि यदि वह परमात्म द्रव्य परम चैतन्य प्रकाशमई स्वरूपसे अर्थात अपने स्वरूप सत्ताके अस्तित्व गुणसे सत् रूप न होवे तव वह निश्चयसे नही होता हुआ किस तरह परमात्म द्रव्य होसके ? अर्थात् परमात्म द्रव्य ही न होवे । यह वात प्रत्यक्षसे विरोध रूप है, क्योंकि स्वसंवेदन ज्ञानसे परमात्मा है ऐसा अनुभवमें आता है। यदि कोई विना विचारे ऐसा माने कि सत्तासे द्रव्य जुदा है तो उसकी अपेक्षासे, यदि द्रव्य सत्ता गुणके अभावमे भी रहता है ऐसा माना जावे तो क्यार दोष आवेंगे उसका विचार किया जाता है। यदि केवलज्ञान, केवलदर्शन गुणोके साथ अवश्य रहनेवाले अपने खरूपकी सत्तासे जुदा ही द्रव्य ठहर सक्ता है ऐसा माना नावे तो जब उसके स्वरूपका अस्तित्त्व नहीं है तब अपने स्वरूपकी सत्ताके विना द्रव्य नही रह सक्ता अर्थात द्रव्यका ही अभाव मानना पड़ेगा। अथवा यदि ऐसा माना जाता है कि अपनेर खरूपके अस्तित्वसे सत्ता और द्रव्यमे संज्ञा, लक्षण प्रयोजनादिकी
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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